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चतुर्थं अध्ययन : अब्रह्मचर्य आश्रव
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हैं, वे भी स्त्री के प्रेमपाश में पड़ कर घोर अपयश, बदनामी और अपकीर्ति की कालिख अपने मुँह पर पोत लेते हैं । कहा भी है
' अपकीर्तिकारणं योषित योषिद् वैरस्य कारणम् । संसारकारणं योषित, योषितं वर्जयेन्नरः ॥ '
अर्थात्—स्त्री अपकीर्ति का कारण है, वैर का कारण है, इसी तरह नारी सारवृद्धि का कारण भी है, अतः मनुष्य को स्त्री संसर्ग से दूर रहना चाहिए ।
संसार में उत्तम कार्यों के करने से मनुष्य की कीर्ति, प्रतिष्ठा और इज्जत बढ़ती है। ऐसा मनुष्य प्रशंसापात्र, सम्माननीय और सर्वमान्य बनता है; परन्तु जब मनुष्य कामवासना में अन्धा होकर किसी स्त्री के जाल में फँस जाता है तो वह लोगों की दृष्टि में गिर जाता है । लोग उसे नफरत की निगाहों से देखने लगते हैं । उसकी कोई प्रतिष्ठा या प्रशंसा नहीं करता ।
इसके अतिरिक्त स्त्री संसर्ग, जब कामभोग की तीव्र अभिलाषा से किया जाता है, तो उस व्यक्ति का शरीर अनेक बीमारियों और व्याधियों का घर बन जाता . है । रोगी और व्याधिग्रस्त व्यक्ति स्त्रीसहवास करेगा तो उसकी बीमारी और व्याधि अवश्य ही बढ़ेगी । जिसका नतीजा यह होगा कि वह असमय में ही बूढ़ा, अशक्त और जीर्ण होकर मौत का मेहमान बन जायगा । कहा भी है
'सद्यो बुद्धिहरा तुंडी, सद्यो बुद्धिकरा वचा ।
सद्यः शक्तिहरा नारी, सद्यः शक्तिकरं पयः ॥'
अर्थात् - 'तु 'डी या कुंदरू का फल शीघ्र बुद्धि का ह्रास करता है । वचसे बुद्धि प्रखर होती है । इसका नियमितरूप से सेवन करने पर बुद्धि तीक्ष्ण होती है । स्त्री तत्काल शारीरिक, मानसिक और आत्मिक तीनों शक्तियों का हरण कर लेती है और दूध पीने से तत्काल शक्ति आती है ।'
मतलब यह है कि स्त्री के प्रति कामवासना जागते ही या उससे संसर्ग करते ही वह मन और तन दोनों को कमजोर बना देती है । और आत्मा तो इन दोनों के क्षीण होते ही निर्बल बन जाती है ।
एक अन्य नीतिकार ने तो यहां तक कह दिया है
'दर्शनाद् हरते चित्त' स्पर्शनाद् हरते बलम् । चिन्तनाद् हरते बुद्धि, स्त्री प्रत्यक्षराक्षसी ॥'
'स्त्री का दर्शन ही चित्त का हरण कर लेता है, उसका स्पर्श बल को नष्ट कर देता है, स्त्री के चिन्तन से बुद्धि नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । इसलिए स्त्री वास्तव में प्रत्यक्ष राक्षसी है ।'