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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
८१३ मुश्किल से उनके पास होगी; मगर उनके अन्तर में परिग्रह की जो धमाचौकड़ी मचती रहती है, उसे देखते हुए वे कदापि अपरिग्रही नहीं माने जा सकते। इसी कारण दशवकालिक सूत्र के द्वितीय अध्ययन में इस विषय में स्पष्ट निर्देश किया गया है
'वत्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य।
अच्छंदा जे न भुजंति न से चाइत्ति वुच्चइ ॥' अर्थात्- वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, आभूषण, स्त्रियाँ, शयनीय पदार्थ आदि जिसके अधीन नहीं हैं, न वह किसी तरह उन्हें उपभोग के लिए अधिकार में कर ही पाता है, किन्तु मन ही मन उनके पाने के लिए लालायित रहता है तो उसे परिग्रहत्यागी नहीं कहा जा सकता।
यह तो एक प्रकार का दम्भाचार-सा हैं कि बाहर से लोगों को दिखाने के लिए पास में कुछ नहीं है, लेकिन अन्दर ही अन्दर प्रकारान्तर से उन त्यक्त पदार्थों को पुन: प्राप्त करने की, पद, प्रतिष्ठा और सम्मान पाने की साधक में धुन सवार है। भगवदगीता में ऐसे साधकों को मिथ्याचारी कहा है। देखिये वह श्लोक
'कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥' ... जो बाहर से इन्द्रियों को रोक कर निश्चेष्ट बैठ जाता है, लेकिन वह मूढ़ात्मा मन ही मन इन्द्रियों के विविध विषयों का या विषयसाधनों का चिन्तन करता रहता है तो वास्तव में वह मिथ्याचारी-ढोंगी कहलाता है।
दूसरी ओर कई प्रसिद्ध साधक अपने को बहुत पहुंचे हुए समझ कर जनकविदेही या सम्राट भरत की दुहाई दे कर खुद को उनके समान अनासक्त बतलाते हैं और 'मूर्छा परिग्रहः' मूर्छा-आसक्ति ही परिग्रह है, इस परिग्रह की परिभाषा की आड़ में बढ़िया से बढ़िया पदार्थों का संग्रह करते जाते हैं या अपने भक्तों के पास संग्रह करवाते जाते हैं। पूछने पर यों ही कहते हैं- 'अजी ! यह हमारा थोड़े ही है; हमारी इन पर आसक्ति या ममता थोड़े ही है।' अथवा वह गृहस्थ, जिसके पास किसी मन्दिर या भगवान के नाम से धन या विविध पदार्थ इकट्ठे किए गये हैं, पूछने पर तपाक से कहेगा—'अजी ! ये तो मन्दिरजी के हैं, यह तो भगवान् का मुकुट है, छत्र है या अमुक पदार्थ है; हमारा तो इसमें कुछ भी नहीं है ।" इस प्रकार जो अपने-आप को भरतचक्रवर्ती या जनक विदेही के समान निर्लेप और अनासक्त बता कर या अनासक्ति की भ्रान्ति में पड़ कर प्रकारान्तर से बहुत संग्रह