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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
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अज्ञानियों की तरह क्षण-क्षण में जो आत्मा की भावमृत्यु होती रहती है, उसको भी पार कर लेता है।
पारगे च सवेसि संसयाणं-अपरिग्रही जब निष्ठापूर्वक साधना करता है तो उसे किसी अतीन्द्रिय ज्ञान-(अवधि, मन.पर्याय या केवलज्ञान) की उपलब्धि हो जाती है, जिससे वह समस्त संशयों का पारगामी बन जाता है। यानी उसके सब संशय छिन्नभिन्न हो जाते हैं । आत्मा में दृढ़ निश्चय का भाव पैदा हो जाता है।
पवयणमायाहिं अहिं अट्ठकम्मगंठीविमोयके-वह आठ प्रवचन माताओं (५ समिति, तीन गुप्ति) के दृढ़तापूर्वक पालन से आठ कर्म की गांठों को खोल देता है। यानी कर्मग्रन्थि का भेदन कर लेता है। यह भी उसके जीवन की महती उपलब्धि है। ___ अट्ठमयमहणं-अहंकार-मद, फिर वह चाहे जाति का हो या कुल का, बल का हो या रूप का, तप का हो या लाभ का, ज्ञान का हो या ऐश्वर्य का; अपरिग्रही के जीवन में स्थान नहीं पाता । अपरिग्रही अहंकार को महापरिग्रह मानता है ।
__ ससमयकुसले—अपरिग्रही अपने सिद्धान्त, आचार या प्रतिज्ञा के पालन में निपुण होता है । वह सिद्धान्त, आचार या प्रतिज्ञा के विरुद्ध किसी भी बात को जीवन में स्थान नहीं दे सकता। सिद्धान्त के मामले में वह किसी से समझौता नहीं करता।
सुहदुक्खनिव्विसेसे—उसके लिए सुख हो या दुःख सब एक समान है । सुख में वह फूलता नहीं, दुःख में घबराता नहीं। दोनों ही अवस्थाओं में वह समानभाव से रहता है । यही अपरिग्रही के जीवन की विशेषता है ।
____ अन्भंतरबाहिरंमि सया तवोवहाणंमि य सुठ्ठज्जुते - वह सदा आभ्यन्तर या बाह्य किसी न किसी तपस्या में भलीभांति पुरुषार्थ करता रहता है। तप ही अपरिग्रही के जीवन का संबल है ।
खंते दंते हियनिरते-अपरिग्रही का बहिरंग परिचय यह है कि वह सदा क्षमाशील एवं कष्टसहिष्णु, इन्द्रियों का दमन करने वाला एवं स्वपरहित में तत्पर रहता है । वह अकर्मण्य बन कर बैठा नहीं रहता, अपितु स्वपरहित के कार्य में संलग्न रहता है, ताकि मन परिग्रह की किसी भी भूलभुलैया में न फंसे ।
ईरियासमिते""समिते मणगुत्ते" कायगुत्त-वह पांच समितियों और तीन गुप्तियों के पालन में सदा उद्यत रहता है।
गुत्तिदिए गुत्तबंभयारी—वह अपनी इन्द्रियों को अशुभ विषयों के बीहड़ में जाने से सदा बचाता है, ब्रह्मचर्य की भी पूर्ण सुरक्षा करता है। क्योंकि विषय
और काम (वेद) इन दोनों को अपरिग्रही अन्तरंग परिग्रह मानता है । ५२