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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र तत्थ कुज्जा) न उन मनोज्ञ शब्दों का स्मरण करना चाहिए और न उनमें बुद्धि ही लगानी चाहिए । (पुणरवि) प्रकारान्तर से और भी कहते हैं-(सोइदिएण) श्रोत्रेन्द्रिय से (अमणुन्नपावकाई सद्दाइ सोच्चा) अमनोज्ञ एवं पापजनक-अशुभ शब्दों को सुन कर भी रोषादि नहीं करना चाहिये । (किं ते ?, वे शब्द कौन-कौन-से हैं ? (अक्कोस-फरुस-खिसण-अवमाणण-तज्जण-निन्भंछण-दित्तवयण - तासण-उक्कृजिय-रुन्नरडिय-कंदिय - निग्घुट्ठ - रसिय - कलुण - विलवियाई) आक्रोशवचन, कठोरवचन, निन्दाकारी वचन, अपमानभरे शब्द, डांट-फटकार, धिक्कार, कोपवचन, त्रासजनक बोल, अव्यक्त चिल्लपों की कर्कश आवाज, रोने, चिल्लाने, बड़बड़ाने या सियार आदि के बोलने की आवाज, करुणस्वर, आत स्वर और विलाप करने का शब्द, (य) तथा (अन्नेसु एवमादिएस अमणुण्णपावएसु तेसु सद्देसु) ये और इस प्रकार के अमनोज्ञ एवं अशुभ उन-उन शब्दों पर (समणेण) साधु को (न रूसियव्व) रोष नहीं करना चाहिए, (न होलियध्वं) कहने वाले को अवज्ञा नहीं करनी चाहिए, (न निदियव्व) न लोगों में उसकी निन्दा ही करनी चाहिए, (न खिसियव्वं) न उस पर खोजना चाहिए, न जनता के सामने उसे 'नालायक' आदि अपशब्द कहने चाहिए, (न छिदियव्वं) न उस वस्तु या व्यक्ति को तोड़ना-फोड़ना चाहिए, न वृत्तिच्छेद ही कराना चाहिए (न भिदियव्वं) न तो ऐसे भयावने या धमकी भरे वचनों से डरना चाहिए और न उसको डराना चाहिए, न हड्डी या मुंह तोडना चाहिए, (न वहेयव्वं) न उसे मारना-पीटना चाहिए, (न दुगुंछावत्तिया उप्पाएउ लब्भा) ऐसे वचन बोलने वाले के प्रति लोगों में इशारे आदि करके जगप्सा-घृणावृत्ति-नफरत पैदा करना भी ठीक नहीं है। (एवं) उक्त प्रकार से (सोतिदियभावणाभावितो अंतरप्पा) श्रोत्रेन्द्रियभावना से साधु का अन्तरात्मा संस्कारितवासित (भवति) हो जाता है और तब (मणुन्नामणुन्नसुन्भिदुभिरागदोसप्पणिहियप्पा) मनोज्ञ और अमनोज्ञ, शुभ और अशुभ शब्दों में क्रमशः राग और द्वेष के संवरण को प्राप्त (साहू) साधु (मणवयणकायगुत्त) मन, वचन और काया का गोपन करने वाला (संवुडे) संवरयुक्त और (पणिहितदिए) संयम के विषय में इन्द्रियों को निश्चल रखता हुआ अथवा (पिहितदिए) इन्द्रियों को विषयों में दौड़ने से रोक कर रखता हुआ (धम्मं चरेज्ज) संवरधर्म का आचरण करता है ।
(बितियं) द्वितीय भावनावस्तु इस प्रकार है- (चक्खिदिएण) नेत्रे न्द्रिय द्वारा (कठे) काष्ठ सम्बन्धी पुतली आदि (य) (पोत्थे) पुस्तकसम्बन्धी या वस्त्रसम्बन्धी,