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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
दूसरे इसी प्रकार के मनोज्ञ और भद्रशब्दों को सुन कर उनमें श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए, न उनमें अनुरक्त-रागयुक्त होना चाहिए, न गृद्धि करनी चाहिए, न मोह ही करना चाहिए, न हंसना चाहिए, न उसके लिए अपनी आत्मा को न्योछावर करना चाहिए, न लोभ करना चाहिए, न मन में प्रसन्न होना चाहिए और न ही उनका स्मरण तथा मनन करना उचित है। फिर दूसरी तरह से भी श्रोत्रेन्द्रिय से अमनोज्ञ तथा पापजन्य अशुभ शब्दों को सुन कर रोष-द्वषादि नहीं करना चाहिए । वे कौन-कौन से अशुभ शब्द हैं ? इसके उत्तर में कहते हैं आक्रोशवचन, कठोरवचन, निन्दात्मकवचन, अपमानवचन, डांटफटकार के वचन, धिक्कार के वचन, रूठने के वचन, भयजनक त्रासोत्पादक वचन, अस्पष्टरूप से बहुत बड़ा शोर, रोने-चिल्लाने की आवाज, इष्ट के वियोगादि से जन्य शोकवचन, गंभीर नाद तथा करुणाजनक विलाप सुन कर तथा इसी प्रकार के अमनोज्ञ व पापजनित अशुभ शब्द कान में पड़ने पर अपरिग्रही श्रमण को उन पर या उनके कहने वालों पर रोष नहीं करना चाहिए, न अवज्ञा ही करनी चाहिए, न निन्दा करनी चाहिए, न दूसरे लोगों के सामने उनकी बुराई करनी चाहिए, न बुरी आवाज करने वाले उन पदार्थों या व्यक्तियों के तोड़फोड़ या छेदन-भेदन में प्रवृत्त होना चाहिए, न मारपीट ही करनी चाहिए और न किसी के प्रति घृणा, नफरत या' जुगुप्सा पैदा करना ही उचित है । इस प्रकार श्रोत्रेन्द्रियभावना से भावित साधु का अन्तरात्मा मनोज्ञ-अमनोज्ञ या शुभाशुभ शब्दों पर राग और द्वोष को सर्वथा रोक लेता है, वह मनवचन-काया का गोप्ता साधु ही संवर भाव से युक्त होकर इन्द्रियों पर नियंत्रण करता हुआ चारित्रधर्म का पालन करता है।
दूसरी भावनावस्तु इस प्रकार है-नेत्रेन्द्रिय से काष्ठसम्बन्धी, पुस्तकसम्बन्धी या वस्त्रसम्बन्धी, चित्रसम्बन्धी, मिट्टीआदि के लेप कर्म से सम्बन्धित पुतली आदि, पत्थर से बनी हुई मूर्तिआदि सम्बन्धी, हाथीदांत आदि से बनी हुई वस्तुसम्बन्धी, पांच रंगों से युक्त रंग-बिरंगे, मनपसंद एवं आँखों को प्रिय सचित्त, अचित्त या मिश्र दृश्यमान वस्तु के रूप को देखकर तथा विभिन्न आकार वाले गूंथ कर बनाए हुए, बेढ कर कसीदा निकाले हुए, पिरो कर तैयार किए हुए, जोड़ कर इकट्ठे किए हुए, नेत्र और मन को अत्यन्त सुख देने वाले बहुत-से माल्य-मालाओं तथा वनखंडों, पर्वतों, गांवों, खानों नगरों, विकसित नीलकमलों तथा श्वेतकमलों से परिमंडित, मनोहर तथा