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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
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की दीक्षा में पारंगत साधु उपर्युक्त नियम के अनुसार हर गाँव में एक रात और हर नगर में पांच रात रहेगा। जिससे जनता का ममत्त्व न बढ़े, आहारादि में भी आसक्ति न बढ़े।
जितिदिए जितपरिसहे निन्भओ विऊ-ये चारों विशेषण अपरिग्रही के जीवन की पराकाष्ठा के हैं। वह जितेन्द्रिय होगा, परिषहविजेता भी होगा, निर्भय होगा, वह सच बात कहने में घबराएगा नहीं, निर्भयतापूर्वक अपनी बात जनता के सामने रखेगा । गीतार्थ-विद्वान् होगा।
सच्चित्ताचित्तमीसकेहिं दवेहिं विरायं गवे, संचयाओ विरते, मुत्ते, लहुके, निरवकंखे—ये सब विशेषण अपरिग्रही के जीवन में बाह्य परिग्रहों से विरक्ति के मापदंड हैं । इन गुणों के द्वारा बाह्यरूप से अपरिग्रही का जीवन नापा जा सकता है। उसके जीवन के संस्कारों में वैराग्य तो जन्मघुट्टी की तरह रहता है। द्रव्य चाहे सचित्त हो, अचित्त हो या मिश्र, कम हो या ज्यादा, छोटा हो या बड़ा, कीमती हो अथवा अल्पमूल्य, वह इतना विरक्त होगा कि उसकी तरफ झांकेगा भी नहीं, उठाना तो दूर रहा, छुएगा भी नहीं। किसी भी चीज के संचय से तो वह दूर ही रहेगा। वह निर्लोभी, अल्पोपकरण के कारण हलका अथवा गर्वभार से हीन एवं निष्कांक्ष
होगा।
. जीवियमरणासविप्पमुक्के-जीने और मरने की आशा से वह मुक्त होता है। प्रशंसा मिलने पर वह अधिक दिन जीने की इच्छा नहीं करता और कष्ट या रोग से घबरा कर जल्दी मर जाने की भी कामना नहीं करता। मृत्यु किसी भी समय आ जाए. वह हंसते-हंसते उसका स्वागत करेगा, असंयमी जीवन में वह एक दिन भी जीना नहीं चाहेगा।
निस्संधं निव्वणं चरित्तं धीरे काएण फासयंते-चारित्र के परिणाम से युक्त वह धीर निरतिचार चारित्र को काया से स्पर्श करता हुआ चलेगा। मतलब यह है कि उसका चारित्र पालन केवल मन के लड्ड नहीं, परन्तु मुह में डाली हुई मिश्री के समान प्रत्यक्ष अनुभूतिरूप होगा। वह भी निर्दोष होगा, अखंड परिणामों की धारा से युक्त होगा।
अज्झप्पज्झाणजुत्ते निहुए-इन दोनों विशेषणों द्वारा अपरिग्रही की अन्तरंग विधेयात्मक प्रवृत्ति सूचित की है। वह निरन्तर अध्ययन वगैरह से आत्मध्यान में
१-यह नियम भिक्षुप्रतिमा स्वीकृत साधु की दृष्टि से लिखा गया है ।
-संपादक