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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
८११ लिए समान हैं, और वह सदा अभ्यन्तर और बाह्य तपस्या के उपधान में अत्यन्त पुरुषार्थ करता रहता है। वह क्षमाशील या कष्टसहिष्णु, इन्द्रियों का दमन करने वाला तथा स्वपरहित में रत रहता है। वह ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त, एषणासमिति का पालक, आदानभांडामत्रनिक्षेपणासमिति से युक्त, उच्चारप्रस्रवणखेलसिंधाणजल्लपरिष्ठापनिकासमिति से सम्पन्न, मनोगुप्तिसहित, वचनगुप्तियुक्त लथा कायगुप्ति का पालक है। वह इन्द्रियों को विषयों में भटकने से बचाता है, ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करता है, समस्त परिग्रह का त्यागी, पापाचरण में लज्जाशील. या रस्सी के समान सरल, धन्य, तपस्वी, कष्ट-सहिष्णुता में समर्थ और जितेन्द्रिय होता है। वह गुणों से सुशोभित या आत्मशोधक अथवा समस्त प्राणियों का मित्र, आगामी सुखभोगों की निदान–कामना से रहित है । उसकी लेश्याएँ यानी चित्त की तरंगें संयम से बाहर नहीं जातीं, वह 'मैं' और 'मेरा' के अभिमानसूचक शब्दों से रहित है । जिसके पास अपना कहने को 'कुछ नहीं है, जिसने बाह्य और आभ्यन्तर गाठे तोड़ दी हैं, वह कर्म या आसक्ति के लेप से रहित है, अति निर्मल उत्तम कांसे का बर्तन जैसे पानी के संपर्क से मुक्त रहता है, वैसे ही आसक्तिपूर्ण सम्बन्ध से मुक्त, शंख की तरह रागादि के अंजन कालिमा से रहित, तथा राग, द्वेष और मोह से विरक्त है । कछुए के समान इन्द्रियों का गोपन करने वाला, शुद्ध सोने के समान शुद्ध आत्मस्वरूप का द्रष्टा, कमल के पत्ते की तरह निर्लेप है । अपने सौम्य स्वभाव के कारण चन्द्रमा की तरह सौम्य, सूर्य के समान संयम के तेज से देदीप्यमान, पर्वतों में प्रधान मेरुपर्वत की तरह सिद्धान्त पर अविचल, समुद्र के समान क्षोभरहित एवं स्थिर, पृथ्वी की तरह शुभाशुभ सभी प्रकार के स्पर्शों को सहने वाला है, तपस्या से वह अन्तरंग में ऐसा देदीप्यमान लगता है, मानो भस्मराशि से ढकी हुई आग हो। तेज से जलती हुई आग के समान जाग्वल्यमान है । गोशीर्षचन्दन के तुल्य शीतल और शील से सुगन्धित तथा बड़े ह्रद के समान शान्तस्वभावी है। अच्छी तरह घिस कर चमकाये गए निर्मल दर्पणमंडल के तल के समान सहजस्वभाव से मायारहित होने के कारण अत्यन्त प्रमार्जित व निर्मल जीवन वाला है, शुद्ध परिणाम वाला है, कर्मशत्रु ओं की सेना को पराजित करने में हाथी की तरह शूरवीर है, वृषभ की तरह उठाए हुए भार को धारण करने में समर्थ है,