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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर और भाव का चोर बन जाता है। वेश बदल कर या अच्छे कपड़े पहिन कर, बन ठन कर तथा वचन से लोगों को चकमे में डाल देता है। लोगों को क्रियाकाण्ड बता कर धूर्तता करता रहता है। जो लोग क्रिया-पूजक या वेयपूजक होते हैं, वे प्रभावित होकर उसे अच्छी-अच्छी खाने-पीने की चीजें दे देते हैं । वह अपने लिए तो अच्छी-अच्छी चीजें खूब बटोर कर ले आता है, लेकिन संघ के साधुओं के लिए जरूरत के अनुसार संग्रह करने और उन्हें बाँटने की उसकी रुचि नहीं होती । संविभाग भी वह ठीक से नहीं करता । वह अपना बड़प्पन जमाने के लिए दूसरे साधुओं की अथवा दाताओं की निन्दा करता है। दूसरे साधुओं के दोष गहस्थों के सामने प्रगट करके वह अपनी उत्कृष्टता का सिक्का जमा कर लोगों से अच्छी-अच्छी वस्तुएं प्राप्त करना चाहता है । और जब इस प्रकार से अच्छी वस्तुएं ज्यादा तादाद में नहीं मिलती तो वह रोगी, वृद्ध, आचार्य, गुरु या उपाध्याय आदि के नाम से अच्छी-अच्छी चीजें लाकर स्वयं उनका उपभोग या सेवन करता है । बल्कि कभी-कभी लोगों को वह दूसरों को दान देते देखता है, या किसी सत्कार्य या धर्म कार्य को करते देखता है तो ईर्ष्या या द्वेष के मारे दान की निन्दा करने लगता है, न देने को कहता है, दूसरों को दान देने में विघ्न डालता है। साथ ही वह ईर्ष्या से जल-भुन कर साधुओं की चुगली खाता है,डाह करता है, परनिन्दा का प्रकरण छेड़ देता है, अथवा दूसरे के गुणों को, उपकारों को ढक कर चुन-चुन कर उनके दोषों को ही प्रगट करता है । वह भी इसलिए कि मुझे ही गृहस्थों से बढ़िया चीजें मिला करें। इस प्रकार वह चिल्लाता बहुत है, अपनी डींग हाँक कर शोर बहुत मचाता है, आपस में लड़ाने और फूट डालने का प्रयत्न करता है, ताकि दोनों में से किसी से तो कुछ मिल ही जाय ! न देने पर झगड़ा कर बैठता है, गृहस्थों से बैर बांध लेता है, उन्हें स्त्री आदि की चटपटी बातें सुना कर विकथा किया करता है । ऐसे साधक का चित्त सदा असमाधि में रहता है । संग्रह वृत्ति या लोभ वृत्ति होने के कारण वह सदा प्रमाण से रहित भोजन करता है, लगातार दूसरों के साथ बैर बाँधे रहता है। तीव्र रोष में आग बबूला बन जाता है । ऐसे साधक में कोई संतोष, शान्ति, मस्ती या अलोभवृत्ति नहीं होती। इसी बात को शास्त्रकार मूलपाठ द्वारा सूचित करते हैं-'परिपरिवाओ .."तिव्वरोसी, से तारिसए नाराहए वयमिणं ..... जे से उवहिभत्त.......से तारिसते आराहते वयमिणं ।" इनका अर्थ स्पष्ट कर चुके हैं।
अचौर्य संवर को पाँच भावनाएं पूर्व सूत्रपाठ में शास्त्रकार अचौर्य व्रत का माहात्म्य, उसका स्वरूप एवं अचौर्य के विराधक-आराधक के सम्बन्ध में स्पष्ट निरूपण कर चुके हैं । अब अचौर्य संवर की चारों ओर से सुरक्षा के लिए साधक के मन-वचन-काया में बसे संस्कारों को बद्धमूल करने हेतु पांच भावनाओं का निरूपण निम्नोक्त सूत्रपाठ द्वारा करते हैं