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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
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साधु के निमित्त से ही वह न बनाया गया हो, साधु के निमित्त किसी स्थान को बनाने में षड्जीव-निकायों में से किसी जीव की विराधना अनिवार्य है। स्थान के अतिरिक्त साधु को कई बार गृहस्थ ठहरने के लिए ऊबड़खाबड़,अनेक जगह खड्डे पड़े हुए, टूटे फूटे या गंदे मकान बता देता है, उस समय साधु अपना आत्मध्यान छोड़ कर उसे दुरस्त कराने, उसका परिकर्म-संस्कार कराने की चिन्ता करता है। साधु सोचने लगता है कि यहाँ किसी से मांगेगे या मरम्मत कराने को कहेंगे तो उसे साधुओं के प्रति अश्रद्धा पैदा होगी, क्यों न जंगल या बगीचे से घास फूस आदि ले आएं या मंगा लें । जंगल तो किसी का नहीं है,वहां कौन मना करेगा या कौन-सा दोष लगेगा? क्यों नहीं इन सार्वजनिक पेड़ों को काट लें या कटवा लें । गृहस्थ ने भी तो इसी तरह यह मकान बनाया है। शरीर से सम्बन्धित इन तीनों आवश्यकताओं के हेतु उठने वाले इन और ऐसे ही अन्य विकल्पजालों को रोककर साधुजीवन को सही दिशा में मोड़ने वाली और अचौर्य महाव्रत के अनुरूप सही चिन्तन तथा तदनुसार प्रयोग करने की प्रेरणा देने वाली अचौर्यव्रत की क्रमशः पहली, दूसरी और तीसरी भावना है।
. इसके बाद साधुजीवन में मुख्यतया न्याय और सम्मान की इच्छाएं होती हैं । ये दोनों मन से सम्बन्धित हैं। जब साधु यह देखता है कि मैं साधुजीवन में चारित्र एवं मौलिक नियम मर्यादाओं का अच्छी तरह पालन कर रहा हूँ, फिर भी मेरे गुरु, बड़े साधु, या अन्य कोई साधु आहारादि आवश्यक वस्तुओं का वितरण करने में उसके साथ पक्षपात करते हैं, स्वयं सरस और बढ़िया चीजें लेकर उसे रद्दीसद्दी या तुच्छ चीजें दे देते हैं अथवा अपना बड़प्पन जताकर उससे जबरन सेवा लेने, या काम कराने का प्रयत्न करते हैं । रुग्ण,या वृद्ध साधुओं का सशक्त युवक साधुओं से सेवा लेने का अधिकार है, मगर जब सशक्त युवक साधु उनकी सेवा नहीं करते तो वह अपने को अन्यायपीड़ित समझकर मन में व्यथित होता रहता है, अंदर ही अंदर घुटता रहता है । ऐसी अवस्था में वह या तो छलकपट करता है या अपने प्रति अप्रीति उत्पन्न हो जाने पर साधु जीवन का त्याग कर देता है। सार्मिक के साथ प्रीति का तथा पक्षपातवश अधिकार का हरण तथा समान वितरण न करने से वह साधु तृतीय महाव्रत से भ्रष्ट हो जाता है । इन सब विकल्पों को शान्त करके साधक को धैर्य बँधाकर तृतीयमहाव्रत की रक्षा के लिए प्रोत्साहित करने वाली चौथी साधारण-पिंडपात्रलाभ समिति भावना है ।
मन से सम्बन्धित दूसरी आवश्यकता है—आदर सम्मान की । साधु भी प्रीति और सत्कार चाहता है, वृद्ध और बुजुर्ग साधु अपने से छोटे साधु का सिर झुका हुआ और हाथ जुड़े हुए देखना चाहते हैं,उनका विनय पाने का अधिकार भी है। मगर छोटे से छोटा नवदीक्षित साधु भी परस्पर नम्र व्यवहार की अपेक्षा तो अपने से बड़े से भी करता