________________
७३०
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
स्वनिश्चित बृहत्ध्येय में जुट जाना, बाह्य ब्रह्मचर्य का विधेयात्मक रूप है । विद्याध्ययन, शास्त्राध्ययन या योगसाधना आदि भी उसी सहायक अंग है । इसी प्रकार मैथुन सेवन न करना, किसी स्त्री या अन्य में कामासक्ति न रखना, मैथुन के 'आठ अंगों से दूर रहना, कामोत्तेजक खान पान, रहन सहन, वेशभूषा आदि तथा अश्लील दृश्य, श्रव्य, स्पृश्य, खाद्य, पाठ्य, लेख्य आदि तमाम बातों से दूर रहना, निषेधात्मक रूप से बाह्य ब्रह्मचर्य है । फिर साधु जीवन में इन दोनों रूपों का मन, वचन, काया से तथा कृत कारित और अनुमोदित रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना ही ब्रह्मचर्य का पूर्ण शुद्ध रूप है ।
-
ब्रह्मचर्य विघातक बातों से सावधानी - शास्त्रकार ने ब्रह्मचर्य के निषेधात्मक रूप को लेकर कुछ ऐसी बातों से बचते रहने का संकेत किया है, जो ब्रह्मचर्य - नाशक हैं- "इमं च रतिरागदोसमोहपवढ्डणकरं.. तव संजम बंभचेरघातोवघातियाई अणुचरमाणेणं बंभचेरं वज्जेयव्वाइं सव्वकालं ।" सूत्रपाठ की इन सब पंक्तियों का अर्थ मूलार्थं एवं पदान्वयार्थ से काफी स्पष्ट हो जाता । इसका आशय यही है कि ब्रह्मचर्य का लक्षण आत्मसेवा, आत्मरमणता, वीर्यरक्षा आदि है, तो आत्मा से भिन्न जो शरीर, इन्द्रिय या विषय कषायादि पर पदार्थ हैं, उनमें रमण करना, उसी में आसक्ति रखकर शरीर या इन्द्रियों को ही पालना -पोसना, मन को विविध कामोत्तेजक बातों में भटकाना, शरीर या इन्द्रियों की ही सेवा शुश्रूषा में लग जाना तथा आसक्ति, राग, द्वेष और मोह को बढ़ाने वाली, आत्मा के प्रति लापरवाही या प्रमाद के कारण कामोर्त - क दोषों की ओर झुकने वाली प्रवृत्तियों में लग जाना अब्रह्मचर्य है । और ऐसे अब्रह्मचर्य से शरीर, मन, इन्द्रिय आदि को बचाना ही वास्तव में ब्रह्मचर्य है । अतः ब्रह्मचर्यघातक एवं शरीरेन्द्रियपोषक तमाम प्रवृत्तियों से पूर्ण ब्रह्मचारी साधक को सदा दूर रहना चाहिए ।
-
ब्रह्मचर्य पोषक बातों का निर्देश ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए या ब्रह्मचर्य म स्थिर होने के लिए साधु के सामने अपना ध्येय स्पष्ट होना चाहिए । जब साधक आत्मा में या आत्मगुणसाधक प्रवृत्तियों में सतत रमण करेगा, तब स्वतः ही शरीरशुश्रूषा को, इन्द्रियपोषण की एवं आसक्ति, मोह तथा काम को बढ़ाने की बातों से वह दूर रहेगा । अपने सामने वृहत्ध्येय को रख कर जब वह प्रवृत्ति करेगा तो शरीर या इन्द्रियों पर आसक्ति या मोह रख कर नहीं चलेगा । सहज भाव से वह शरीर
१
मैथुन के अंग - स्मरणं कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणम् । संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च ॥ एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिणः ।
- संपादक