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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह - संवर
चित्त में ग्रहण करने की आतुरता तथा लोभ पैदा करने वाली हों, उन्हें (परियड्ढेउं) खींचना अपनी और झपटना, बढ़ाना या जतन से रखना ( गुणवओ) मूलगुणादि युक्त भिक्षु के लिए (न) उचित नहीं है । ( न यावि) और न ही (संजएण) संयमी साधु को (ओसहभे सज्जभोयणट्ठाए) औषध, अनेक वस्तुओं से बनी हुई दवाभैषज तथा भोजन के लिए ( पुप्पफलकंदमूलादियाइ) फूल, फल, कंद और मूल, आदि को तथा ( सणसत्तरसाई सव्वधन्नाई) जिनमें १७ वां धान्य सन है, ऐसे १७ प्रकार के सभी धान्यों -अनाजों का ( तिहिवि जोगेहि ) तीन योगों - मन बचन काया से ( परिघे ) ग्रहण करना । (न) ठीक नहीं है । ( किं कारणं ? ) इसमें क्या कारण है ? ( अपरिमियणाणदंसणधरेहि) अनन्तज्ञान और अनन्त दर्शन के धारण करने वाले, (सीलगुण - विणय तवसंजमनायकेहि ) शील -समाधि, मूलगुण आदि, विनय, तप और संयम के नायक - मार्गदर्शक ( सव्वजगज्जीव- वच्छले हि) सारे जगत् के जीवों के प्रति वात्सल्य से ओतप्रोत (तिलोय महिएहि ) तीनों लोकों के पूजनीय ( जिणवरिन्देहि) वीतरागों में श्रेष्ठ केवल ज्ञानियों के इन्द्र यानी तीर्थकरों ने (एस) फूल, फल, धान्य आदि को ( जंगमाणं) त्रस जीवों की (जोगी) योनि - उत्पत्ति स्थान के रूप में (दिट्ठा) जाना — देखा है; (न कप्पइ जोणिसमुच्छेदोत्ति ) अतः योनि का नाश करना उचित नहीं है, (तेण) इसी कारण से (समणसीहा) मुनिपुंगव ( वज्जति) पूर्वोक्त पुष्प आदि का ग्रहण करने का त्याग करते हैं । (य) और (ओदणकुम्मास-गंज- पण मंथु भुज्जिय- पलल सूप सक्कुलिवेढिम वरसरक पिड - सिहरिणि वट्ट - मोयग - खीर - दहि- सप्पि-नवनीत तेल्ल-गुल- खंड- मच्छंडिय- मधु-मज्ज-मंस-खज्जक- वंजण - विधिमादिकं ) भात - पके हुये चावल, उड़द अथवा लोभिया- चंवला, गंज नामक भोज्य पदार्थ, सत्तू, बेर आदि की कुट्टी, भुने हुये या सेके हुये चने आदि अनाज, तिल को पिट्ठी अथवा तिलपपड़ी, मूंग आदि की दालें, पूड़ी अथवा तिल सांकली, बेढमी - एक प्रकार की मोटी चोकोर बनाई हुई रोटी, शक्कर के रस से भरे हुये गुलाबजामुन रसगुल्ला आदि; कचौरी, समोसा आदि जिनमें दाल की पिट्ठी आदि भरी जाती है, गुड़ आदि का पिंड या शक्करमिला हुआ दही श्रीखंड, दाल के बड़े, लड्डू, दूध, दही, घी, मक्खन, तेल, गुड़, खांड, मिश्री, मधु, मद्य, मांस, खाजा, अनेक प्रकार के साग, चटनी, अचार, रायता आदि व्यंजन तथा पाक विधि से बने हुये सब भोज्य पदार्थ तथा (पणीयं रसीले पौष्टिक भोज्य
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( जंपि) यद्यपि कुछ ग्रहण करने योग्य हैं, ( तंपि ) तथापि ( उवस्सए) उपाश्रय — स्थानक में (परघरे व ) या दूसरे घर में, ( रन्नेव ) अथवा जंगल में (सुविहियाणं ) परिग्रहत्य गी
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