Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

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Page 852
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ९०७ पदान्वयार्थ–(एवं) इस प्रकार (से) पूर्वोक्त अपरिग्रहवती (संजते) संयमी साधु (विमुत्त) धनादि से मुक्त (निस्संगे) आसक्तिरहित, (निप्परिग्गहरुई) जिसकी परिग्रह में कोई रुचि नहीं रही है, (निम्ममे) धर्मोपकरणों पर भी जो ममत्वरहित है, (निन्नेहबंधणे) स्नेह-बन्धन से भी जो मुक्त है, (सव्वपावविरते) ऐसा सर्वपापों से विरत साधु (वासीचंदणसमाणकप्पे) वसूले से काटकर अपकार करने वाले तथा चंदन के समान उपकार करने वाले दोनों पर समान कल्पना-बुद्धि वाला, (समतिणमणिमुत्तालेढुकंचणे) जिसको दृष्टि में तिनका और मणि-मोती तथा ढेला और सोना दोनों समान हैं, (समे य माणावमाणणाए) जो सम्मान और अपमान दोनों अवस्थाओं में सम है, (समियरते) जिसने पापकर्मरूप रज या विषयों में रयउत्सुकता को शान्त कर दिया है, (समितरागदोसे) जो राग-द्वेष का शमन करने वाला है; (समितीसु समिए) पांचों समितियों-सम्यक् प्रवृत्तियों में समित-युक्त है। (सम्मदिट्ठी) जो सम्यग्दृष्टि है (य) तथा (जे) जो (सव्वपाणभूतेसु समे) समस्त त्रास और स्थावर जीवों पर समभावी है, (से ह समणे) वही श्रमण तपस्वी है, सम मन वाला है अथवा शमन-शान्तकषाय है, (सुयधारए) वही श्रुत-शास्त्र का धारक-जानकार है, (उज्जुते) वह संयम में उद्यत या उद्यमशील है अथवा ऋजु-सरल है । (स साहू) वही सच्चा साधु है (सव्वभूयाणं सरणं) वह समस्त प्राणियों को शरण देने वालारक्षक है; (सव्व-जगवच्छले) समस्त विश्व के प्रति वात्सल्यभाव से ओतप्रोत विश्ववत्सल है। निःस्वार्थ हितैषी है; (सच्चभासके) सत्यभाषो है; (य) तथा (संसारंतट्टिते) वह संसार के अन्त-किनारे पर स्थित है; (य) तथा (संसारसमुच्छिन्न) उसने संसार-परिभ्रमण को छिन्न-नष्ट कर दिया है, (सततं) निरन्तर होने वाले (मरणाणं) बाल-अज्ञानी जीवों के भावमरणों से (पारए) पार पहुंच गया है। (सव्वेसि संसयाणं च पारगे) और वह समस्त संशयों से अतीत यानी परे हो गया है। (अहिं पयवणमायाहिं) पांच समिति और तीन गुप्तिरूप ८ प्रवचनमाताओं के द्वारा (अट्ठकम्मगंठीविमोयके) आठ कर्मों रूपी गांठ को खोलने वाला हो गया है, (अट्ठमयमहणे) जाति, कुल आदि के आठ मदों-अहंकारों का मथन-नाश करने वाला है, (य) और (ससमयकुसले) स्वकीय सिद्धान्त या आचार अथवा प्रतिज्ञा में कुशल (भवति) है। (सुहदुक्खनिव्विसेसे) वह सुख और दुःख में एक-सा रहता है। (य) और (सया) सदा (अभितरबाहिरंमि तवोवहाणमि) आभ्यन्तर और बाह्य तपरूप गुण के उपधान-निकट पहुंचने में (सुट्ठज्जते) अत्यन्त उद्यमशील-पुरुषार्थी है; (खंते) क्षमावान या कष्टसहिष्णु है, (दंते) इन्द्रियों का दमन करने वाला है (य) तथा

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