Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith
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८०५
दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर पुढवी व सव्वफास-विसहे, तवसा वि य भासरासिछनिव्व जाततेए, जलिय-हुयासणो विव तेयसा जलंते, गोसीसचंदणं पि व सोयले, सुगंधे य, हरयो विव समियभावे, उग्घोसियसुनिम्मलं व, आयंसमंडलतलं व पागडभावेण सुद्धभावे, सोंडीरे कुंजरो व्व, वसभेव्व जायथामे, सीहे वा जहा मिगाहिवे होति दुप्पधरिसे, सारयसलिलं व सुद्धहियए, भारंडे चेव अप्पमत्ते, खग्गिविसाणं व एगजाते, खाणु चेव उड्ढकाए, सुन्नागारेव्व अप्पडिकम्मे, सुन्नागारावणस्संतो निवाय-सरणप्पदीपज्झाणमिव निप्पकंपे, जहा खुरो चेव एगधारे, जहा अही चेव एगदिट्ठी, आगासं चेव निरालबे, विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के, कयपरनिलए जहा
चेव उरए, अप्पडिबद्ध अनिलोव्व, जीवोव्व अप्पडिह्यगती, गामे गामें एकरायं, नगरे नगरे य पंचरायं दुइज्जते य जितिदिए जितपरीसहे निब्भओ विऊ (विसुद्धो) सचित्ताचित्तमीसकेहि दवहिं विरायं गते, संचयातो विरए, मुत्ते, लहुके, निरवकंखे, जीवियमरणासविप्पमुक्के, निस्संधं निव्वणं चरित्ते धीरे काएण फासयंते, अज्झप्पज्झाणजुत्ते, निहुए, एगे चरेज्ज धम्म । ___इमं च परिग्गहवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं, अत्तहियं, पेच्चाभाविकं, आगमेसिभद्द, सुद्ध, नेयाउयं अकुडिलं, अणुत्तरं, सव्वदुक्खपावाण विओसमणं ।
संस्कतच्छाया एवं स संयतो, विमुक्तो, नि संगो, निष्परिग्रहरुचिर्, निर्ममो, निःस्नेहबन्धनः, सर्वपापविरतो, वासीचन्दनसमानकल्पः, समतृणमणिमुक्तालेष्टुकांचनः, समश्च मानापमानतायां, शमितरजः (रतः अथवा रयः), शमितरागद्वषः, समितः समितिषु, सम्यग्दृष्टिः, समश्च यः सर्वप्राणभूतेषु, स खलु श्रमणः श्रुतधारकः, ऋजुकः, (उद्युक्तः उद्यतोवा) संयतः, सुसाधुः, शरणं सर्वभूतानां, सर्वजगद्वत्सलः सत्यभाषकश्च, संसारान्तस्थितश्च, समुच्छिन्न
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