Book Title: Prashna Vyakaran Sutra
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 838
________________ दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर ७६३ करता है। साथ ही स्वयं सर्दी, गर्मी, वर्षा और आफतें सहकर पथिकों को छाया देने वाला, पक्षियों को बसेरा देने वाला, अपने फल, फूल, पत्तों आदि से तथा अपने जीवनरस से अनेकों प्राणियों को जीवनदान देने वाला उपकारी वृक्ष ही होता है । वह मान-अपमान में भी सहिष्णु बना रहता है। इसी कारण शास्त्रकार ने अपरिग्रहसंवर को भी संवर के महावृक्ष की उपमा दी है। अपरिग्रहसंवर रूपी श्रेष्ठ वृक्ष के अंगोपांग तथा उसका क्रियाकलाप इस प्रकार है जिस वृक्ष का जितना अधिक विस्तार-फैलाव होता है, वह उतना ही अधिक छायादार एवं शान्तिदायक बनता है-इस दृष्टि से अपरिग्रहसंवरवृक्ष के फैलाव का कथन किया है । भगवान् महावीर के प्रवचनों से उत्पन्न होने वाले विविध क्षयोपशम आदि अनेक भावों से मन में परिग्रह से विरक्ति हो जाती है तो साधक के मन में अनेक प्रकार के त्याग, नियम, प्रत्याख्यान और तप के शुभ विचार उठते हैं। यही अपरिग्रहवृक्ष का फैलाव है। अपरिग्रहवृक्ष की जड़ है-- सम्यग्दर्शन। क्योंकि वीतराग अपरिग्रही देव, मार्गदर्शक गुरु और धर्म इन तीनों के प्रति दृढ़ श्रद्धा हुए बिना अपरिग्रहवृक्ष टिक नहीं सकता। अतः सम्यक्त्व पर ही अपरिग्रहवृक्ष अपनी जड़ जमाए हुए है। धैर्य-चित्त की स्वस्थता ही इसका कन्द है, स्कन्ध का अधोभाग है। चित्त की स्वस्थता के बिना अपरिग्रहवृत्ति स्थायी रूप से पनप नहीं सकती। वृक्ष के चारों ओर वेदिका-थला बना देने से उसकी सुरक्षा बढ़ जाती है। यहाँ अपरिग्रहवृक्ष की वेदिका विनय है। विनय के बिना अर्थात् अपरिग्रहवृत्ति रूप आचार के प्रति घृणा और अनादरबुद्धि या उपेक्षा पैदा होगी, तो उस वृक्ष की सुरक्षा नहीं हो सकेगी। इसलिए अपरिग्रहवृक्ष की सुरक्षा के लिए विनयवेदिका अनिवार्य है। अपरिग्रहसंवर दिलोजान से अपनी साधना करने वाले साधक को सर्वत्र प्रसिद्ध कर देता है, उसके नाम और कार्यों का डंका भूमंडल में बज जाता है। इसलिए तीनों लोकों में व्याप्त विस्तीर्ण यश ही अपरिग्रहवृक्ष का विशाल, घना, स्थूल और सुन्दर स्कन्ध है। पांचों महाव्रत इसकी विशाल शाखाएँ हैं। वास्तव में अपरिग्रहवृत्ति आ जाने पर अहिंसा, सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य सहजरूप से जीवन में आ आते हैं। इसलिए ये शाखाएँ बन कर अपरिग्रहवृक्ष को मजबूत बनाते हैं। अनित्यत्व आदि १२ भावनाएं इस अपरिग्रहवृक्ष की छाल है। जैसे छाल वृक्ष के शरीर की रक्षा करती है, सर्दी गर्मी आदि से बचाव करती है, वैसे ही अनित्यादि भावनाएं साधक के अपरिग्रहीजीवन में उत्साह, स्फूति, श्रद्धा, रुचि और तीव्रता भरकर कठिन कष्टकर प्रसंगों के

Loading...

Page Navigation
1 ... 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893 894 895 896 897 898 899 900 901 902 903 904 905 906 907 908 909 910 911 912 913 914 915 916 917 918 919 920 921 922 923 924 925 926 927 928 929 930 931 932 933 934 935 936 937 938 939 940