________________
दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
ওও जूता, पंखा, आदि पराश्रित बनाने वाले साधनों को ग्रहण करने का भी निषेध किया है । निर्ग्रन्थ श्रमण न तो छाता रखता है, न पंखा ही रखता है, और न जूते पहनता है । जबकि अन्य धर्मसम्प्रदायों के साधु उक्त सब चीजें रखते हैं और इनका यथासमय उपयोग भी करते हैं । जैनश्रमण मोहादि कर्म शत्रुओं से लड़ने के लिए उद्यत रहता है। वह मोहजनक या राजसी ठाठबाठ के दिखावे की चीजों से दूर रहता है। इसी प्रकार वह अन्तरंग में मोहोत्पादक एवं बाह्यरूप में हिंसादि पापों के जनक लोहा, तांबा, सीसा, रांगा, कांसा, चांदी, सोना, मणि, सीप, मोती, शंख, हाथीदांत, सींग, उत्तम काच, रेशमी वस्त्र और चमड़ा तथा इनमें से किसी चीजके बने हुए बहुमूल्य बर्तन आदि का ग्रहण और संग्रह करना तो दूर रहा, मन से भी उन्हें अपने निश्राय (अधीन) में रखने का नहीं सोच सकता । इसीलिए ये सब उसके लिए निषिद्ध बताए हैं।
___अब ही ऐसी चीजें जो जंगल, बगीचे या खेत में पैदा होती हैं, जिनका कोई मूल्य नहीं है, जिनका जंगल में कोई मालिक भी नहीं होता, प्रकृति के भंडार में यों ही पड़ी रहती हैं, जैसे कि-फूल, फल, कंद, मूल, (जड़ी-बूटी, औषधि) तथा १७ प्रकार के अनाजों में से कोई अनाज आदि । पूर्वोक्त निषेधवचन से तथा वैसे भी सचित्त वस्तु ग्रहण करने का साधु के लिए निषेध होने से साधु को इन चीजों के ग्रहण करने की कतई मनाही है। किन्तु उसके सामने एक विकल्प तो यह बना ही रहता है कि मानलो, कभी रोग, बीमारी या भोजन न मिलने का संकट उपस्थित हो गया तो वह क्या करे ? क्या वह इन प्रकृतिदत्त चीजों को ले ले या संग्रह करके अपने पास रखले ? न रखे तो ऐसे समय में शारीरिक संकट को दूर करने का क्या उपाय है ? इन सब विकल्पों का योग्य समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि ये फल, फूल, अनाज आदि सचित्त हैं, तथापि यदि ये सूख कर अचित्त हो जाय, इनमें से बीज आदि निकल कर अलग हो जाय अथवा बीज में उगने की शक्ति नष्ट हो जाय, तब भी इन्हें ग्रहण करना उचित नहीं है। इसका समाधान वे यों करते हैं कि विश्ववत्सल, विश्ववन्द्य, अनन्तज्ञानदर्शन के धारक, शील गुण विनय तपः संयमादि के मार्ग दर्शक तीर्थंकरों ने अपने ज्ञान से जान-देखकर इन्हें (कन्द आदि तथा ब्रीहि आदि धान्यों को) त्रसजीवों की योनि (उत्पत्ति स्थान) बताया है । यानी कंदमूलादि तथा ब्रीहि आदि धान्य हरित अवस्था में स्थावर एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवों के आश्रयभूत हैं, लेकिन सूख जाने के बाद उनके केवल शरीर मात्र रह जाते हैं । वनस्पतिकाय के जीव उनमें से च्युत हो जाते हैं। किन्तु वायुविशेष तथा अन्य निमित्तों के मिलने पर उन सूखे कन्दादि या धान्य आदि में त्रसजीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसी कारण षड्जीव निकाय के रक्षक साधुओं के लिए हिंसा दोष के भय से उनको ग्रहण करना वर्जित बताया है।