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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
समय में भी अपरिग्रहवृत्ति में स्थिर रखती हैं और लोभ, अभिमान, मोह, काम आदि बाधाओं से साधक के अपरिग्रही जीवन को बचाती हैं । ये बार-बार साधक को प्रेरणा देती हैं कि "जिन वस्तुओं को ग्रहण करने या पाने के लिए तुम आतुर हो रहे हो, वे सब अनित्य हैं, नाशवान हैं, तुम्हें शरण देने वाली नहीं हैं । तुम्हारे साथ जाने वाली नहीं हैं, तुम्हारी आत्मा से भिन्न हैं, शरीर में जाकर वे गंदगी बढ़ाती हैं अथवा लड़ाई-झगड़े आदि की गंदगी बढ़ाती हैं, कर्मबन्धन की कारण हैं, तुम पर आधिपत्य जमा कर तुम्हें गुलाम बनाकर तुम्हारी स्वतंत्रता का हरण करने वाली हैं, धर्मविमुख करने वाली हैं।" इसके अलावा धर्म आदि शुभ ध्यान, शुभयोग और ज्ञानविशेष इस वृक्ष के अंकुर और श्रेष्ठ पत्ते हैं। मूलगुण, उत्तरगुण आदि या धैर्य, समता, सहिष्णुता, अनासक्ति आदि बहुत-से गुण ही इस अपरिग्रहवृक्ष के फूल हैं, जो इसके वैभव को बढ़ाते हैं । इहलौकिक फल की निरपेक्षतारूप समाधि या निःस्पृह प्रवृत्तिरूप सदाचार ही इस महावृक्ष की सुगन्ध है। अनाश्रव - कर्मों के आगमन का निरोध ही इसके फल हैं। वास्तव में अपरिग्रहवृत्ति परिपक्व हो जाने पर कर्मों का आगमन प्रायः कम हो जाता है। मोक्ष के लिए जो बोधिबीज है, वही इसका बीजसार है-बीज का सारभूत तत्त्व मिजा है। मेरुपर्वत के शिखर के समान समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष का मार्गभूत निर्लोभत्व इसका शिखर है । अपरिग्रहवृत्ति में निर्लोभता ही परले सिरे पर रहती है । वही जीवन की हर प्रवृत्ति में ऊपरऊपर थिरकती रहती है। साधनापथ में निर्लोभतारूप सर्वोच्च शिखर के नजर पड़ते हो, . साधक परिग्रहवृत्ति से सावधान हो जाता है । इस प्रकार अन्तिम संवरद्वार एक श्रेष्ठ संवरवृक्ष है, जो अपरिग्रही के जीवन के लिए आधार है।
अपरिग्रही के लिए क्या ग्राह्य है, क्या अग्राह्य ?-चूंकि अपरिग्रहशब्द में कुछ भी ग्रहण न करने का भाव आ जाता है; इसलिए सामान्य साधक चक्कर में पड़ जाता है कि जब सभी चीजें सर्वथा ग्रहण करने का निषेध अपरिग्रह-संवर में आ जाता है तो फिर साधक का जीवन कैसे चलेगा ? शरीर के लिए कुछ चीजें अनिवार्य होती हैं, कुछ चीजें संयम पालन के लिए भी आवश्यक होती हैं। उन्हें ग्रहण किये बिना साधक का शरीर नहीं टिक सकता और शरीर नहीं टिक सकता तो उसकी धर्मसाधना कैसे होगी? इस गुत्थी को सुलझाने के लिए शास्त्रकार मध्यममार्ग बताते हैं, जिससे साधक के जीवन में संयम का भी पालन हो जाय और शरीर भी टिका रह सके, परिग्रह से होने वाले दोष भी न लगें और अपरिग्रहवृत्ति का भी पालन हो जाय।
अपरिग्रही साधक के लिए संग्रह करके रखना परिग्रहवृत्ति है-यद्यपि परिग्रह के लक्षणों के अवसर पर हम पूर्णतया स्पष्ट कर चुके हैं कि वस्तुओं के केवल