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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह-संवर
७६१ उचित है ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं जो आहारादि पदार्थ आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पिण्डैषणा नामक प्रथम अध्ययन के ग्यारह उद्देशों में वर्णित दोषों से रहित होने से शुद्ध हो, वह साधु के लिए ग्राह्य है। तथा खरीद कर लाना, प्राणि हिंसा से तैयार करना, अग्नि में पकाना; इन तीनों कार्यों को स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करते हुए की अनुमोदना करना; इस प्रकार नौ कोटि के दोषों से रहित जो शुद्ध आहार हो, तथा शंकित आदि दस दोषों से मुक्त एवं आधा कर्म आदि सोलह उद्गम के तथा धात्री आदि सोलह उत्पादन के दोषों से रहित आहार की गवेषणा से प्राप्त विशुद्ध भोजन ही साधु के लिए ग्राह्य है । तथा जो आहार सचित्त से अचित्त हो चुका है, जीवन के संसर्ग से रहित है, आयुक्षय होने से जीवों के द्वारा च्युत है या छुड़ाया हआ है, या जीवों ने जिसे स्वयं छोड़ दिया है, ऐसा प्रासूक आहार साधु के ग्रहण करने योग्य है। जो आहार संयोजनादोष से रहित हो, अंगार दोष से निमुक्त हो, धूमदोष से रहित हो, वह भी साधु के लिए ग्राह्य होता है । क्षुधावेदना की निवृत्ति तथा वैयावृत्य आदि छह कारणों के योग से छह काय के जीवों की रक्षा के लिए साधु को प्रति-दिन प्रासुक भिक्षान्न पर ही निर्वाह करना चाहिए। ___ शास्त्रोक्तविधिपूर्वक आचरण करने वाले श्रमण के शरीर में अनेक प्रकार का ज्वर आदि भयानक कष्टप्रद रोग उत्पन्न हो जाने पर, वात की अधिकता से, पित्त और कफ के अत्यन्त कुपित हो जाने पर तथा वात-पित्त-कफ तीनों के संयोग से सन्निपातजन्य व्याधि के उत्पन्न होने पर, तथा सुख के लेश से शून्य, प्रबल- कष्ट से भोगने योग्य, चिरकाल तक अनुभव किये जाने वाले, अत एव कर्कश द्रव्य के समान अनिष्ट गाढ़ दुःख के उदय होने पर अशुभ, कटु और कठोर भयंकर दारुण फल को भुगाने वाले, जीवन का अन्त करने वाले तथा सारे शरीर में असह्य संताप पैदा करने वाले महान् भय के उपस्थित होने पर भी अचित्त बना हुआ औषध, भैषज्य, आहार-पानी हो, तो भी अपने या दूसरे के लिए संचित करके पास में रखना शास्त्रीय विधि से युक्त नहीं है। शास्त्रोक्त विधि के अनुसार चलने वाले पात्रधारी साधु के लिए जो काष्ठ पात्र, मिट्टी के बर्तन या रजोहरण, वस्त्र आदि उपकरण विहित हैं, जैसे कि--