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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
पोत्तिका, (पादठवणं) जिस कंबल के टुकड़े में पात्र रखे जाते हैं, वह पात्रस्थापन, (च) और (पडलाइं) भिक्षा के समय पात्रों को ढकने के वस्त्रखण्ड–पल्ले, (तिन्नेव) कम-से-कम तीन तो होते ही हैं, (च) और (रयत्ताणं) पात्रों की धूल से रक्षा करने के लिए पात्रों पर लपेटने का रजस्त्राण नामक वस्त्रखण्ड, (गोच्छओ) पात्र और वस्त्र प्रमार्जन करने का गोच्छक नाम का कंबलखंड (च) तथा (तिन्नेव) तीन ही (पच्छादा) शरीर पर ओढने के वस्त्र-चादरें, दो सूती एक ऊनी; (रयोहरण-चोलपट्टक-मुहणंतकमादीयं) रजोहरण, चोलपट्टा एवं मुखवस्त्रिका इत्यादि (उवगरणं) उपकरण हैं । (एयंपि) ये सभी (संजमस्स उबबूहणट्टयाए संयम की वृद्धि-रक्षा के लिए (वायायवदेस-मसग-सीय-परिरक्खणट्ठयाए) हवा, धूप, डांस, मच्छर और ठंड से शरीर की रक्षा करने के लिए (संजएणं) साधु को (णिच्च) प्रतिदिन (रागदोसरहियं) राग-द्वेष से रहित होकर (परिहरियव्वं) धारण करने चाहिए । (च) तथा उनके (पडिलेहण-पप्फोडण-पमज्जणाए) प्रतिलेखन करने, झटकने एवं प्रमार्जन करने में (अहो य राओ य) दिन और रात (अप्पमत्तण) प्रमाद से रहित होकर साधु को (भायण-भंडोवहि - उवगरणं) काष्ठ पात्र, मिट्टी आदि के बर्तन तथा अन्य उपकरण (सततं) निरन्तर (निक्खियव्वं) रखना, (च) और (गिव्हियन्वं) ग्रहण करना (भवति) होता है।
मूलार्थ-जो यह आगे कहा जाएगा, वह अन्तिम-परिग्रहनिवृत्ति-अपरिग्रहवृत्तिरूप संवरद्वार-संवर श्रेष्ठ वृक्ष है। श्री भगवान् महावीर के श्रेष्ठ वचनों से कही हुई अनेक प्रकार से परिग्रहनिवृत्ति ही उस अपरिग्रह वृक्ष का विस्तार-फैलाव है। सम्यक्त्व ही उस वृक्ष का मूल है, धृति ही उसका कन्द यानी स्कन्ध से नीचे का भाग है, विनय ही उसकी वेदिका है। तीनों लोकों में व्याप्त विस्तीर्ण यश ही उसका घना, स्थूल महान और सुनिष्पन्न स्कन्ध-तना है । पांच महाव्रत ही उसकी विशाल शाखाएँ हैं, अनित्यत्व आदि भावनाएँ ही उस अपरिग्रह वृक्ष की त्वचा-छाल है । वह अपरिग्रह वृक्ष धर्मादि शुभध्यान, प्रशस्त योगत्रय और ज्ञानरूप पत्तों एवं अंकुरों को धारण करने वाला है। शील ही उसकी शोभा है । आश्रव का अभाव अर्थात् संवरण ही उसका फल है, मोक्ष का बीज बोधि ही उस वृक्ष का बीजसार है-बीज के अन्दर की मांगी है। मेरुपर्वत के शिखर की चोटी के समान यह मोक्ष के निर्लोभतारूपी श्रेष्ठ मार्ग का शिखर है ।