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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र करने वाला है। (बहुगुण-कुसुम समिद्धो) निर्लोभता आदि शुभफलप्रद अनेक गुणों रूपी फूलों से यह अपरिग्रहवृक्ष समृद्ध है। (सीलसुगन्धो) शील-इहलौकिक फल. निरपेक्ष सदाचार या सत्प्रवृत्ति ही उसको सुगन्ध है ।' (अणण्ह वफलो) अनाधव - नये कर्मों का ग्रहण न करना-या आते हुए नव कर्मों का निरोधरूप संवर ही उसका फल है अथवा भगवद्वचन में स्थिति होना—आज्ञा पालन करना ही उसका फल है । (पुणो य) और फिर (मोक्खवरबीजसारो) उस अपरिग्रह वृक्ष का बीज मोक्ष के बीज-बोधिबीज रूप है, वही उसका मिजारूप सार है, (मंदरगिरिसिहरचूलिका इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ) मेरुपर्वत के शिखर को चोटो के समान उत्तम संपूर्णकर्मक्षयरूप भावमोक्ष पर जाने के लिए जो यह निर्लोभता (मुक्ति) रूप श्रेष्ठ मार्ग है, उसका शेखर भूत है।
(जत्थ) परिग्रह त्यागरूप अन्तिम संवरद्वार में (गामागर-नगर-खेड-कब्बडमडंब-दोणमुह-पट्टणासमगयं) गांव, खान, नगर, धूल के कोट बाली बस्ती, . कस्बा, मडम्ब-जिसके चारों ओर ढाई-ढाई योजन तक बस्ती न हो, बंदरगाह, महानगर या आश्रम में रखा हुआ (किंचि) कोई भी पदार्थ अप्पं व) अल्पमूल्य अथवा (बहुंव) बहुमूल्य (अणुंव थूलंव) थोड़ा हो या ज्यादा, अथवा छोटा हो या बड़ा (तसथावरकाय दविजायं) शंखादि त्रसकायरूप तथा रत्नादि स्थावररूप सचेतन या अचेतन द्रव्यसमूह (मणसावि परिधत्तं) शरीर से तो दूर रहा, मन से भी ग्रहण करना (न कप्पई) उचित नहीं है। (हिरन्नसुवन्नखेतवत्थु) चांदी-सोना, क्षेत्र-खुली जमीन
और मकान (ण) ग्रहण करना योग्य नहीं; (च) तथा (दासीदास भयकपेसहयगय-गवेलगं) दासी-दास, नौकर-चाकर, घोड़ा, हाथी, लेना-रखना भी (न) योग्य नहीं (च) और (जाणजुग्गसयणाइ) गाड़ी, रथ आदि सवारियां, अथवा गोल्लदेश प्रसिद्ध जपान विशेष तथा शयनीय पदार्थ लेना (न) योग्य नहीं है, (छत्तक) छाता भी (न) लेना ठीक नहीं, (न कुंडिया) कमंडलु भी लेना उचित नहीं; (न पेहुणवीयणतालियंटका) न मोरपिच्छ एवं बांस आदि का बना पंखा या ताड़ का पंखा लेना ठीक है। (ण यावि अय-तउय-तंब-सीसक-कंस-रयत-जातरूव-मणि-मुत्ताधार-पुडक-संख. दंत-मणि-सिंग-सेल-कायवरचेलचम्मपत्ताई) और न ही लोहा, बंग, तांबा, सीसा, कांसा, चांदी, सोना,चन्द्रकान्तादि मणि, मोतियों का आधार पटक–सीप, शंख, हाथीदांत, या हाथीदांत की बनी हुई मणि, सींग, पाषाण, उत्तम कांच-शीशा, कपड़ा और चमड़ा तथा इनके बने हुए पात्र-बर्तन ग्रहण करना ठीक है। तथा (महारिहाइ) बहुमूल्य वस्तुएं; जो (परस्स) दूसरे के (अज्झोववायलोभजणणाई)