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नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर
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निम्नोक्त पांच भावनाएं बताई हैं-(१) स्त्रीसंसक्त निवासस्थान - त्याग समिति भावना, (२) स्त्रीकथाविरतिसमिति भावना, (३) स्त्रीरूपविरतिसमिति भावना, (४) पूर्वरतपूर्वक्रीड़ित दर्शन-उच्चारण-स्मरण-त्यागसमिति भावना और (५) कामोत्पादक-आहारत्याग समिति भावना । यद्यपि इन पांचों भावनाओं के सम्बन्ध में बताए मूलपाठ का अर्थ हम काफी स्पष्ट कर चुके हैं, तथापि इन पर विशेष विवेचन करना आवश्यक है । अतः हम क्रमशः इन पर विवेचन करेंगे।
पांच भावनाओं की उपयोगिता- पहले कहा जा चुका है कि ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा साधु के लिए अनिवार्य है । और व्रतों में अपवाद और रियायत हैं, लेकिन ब्रह्मचर्य में कोई अपवाद और रियायत नहीं। बल्कि शास्त्र में यहां तक कहा गया है कि प्राणत्याग स्वीकार कर ले, यानी आत्महत्या करले, लेकिन ब्रह्मचर्य व्रत खंडित न करे । इसलिए ब्रह्मचर्य की सुरक्षा जब प्राणप्रण से करना अनिवार्य है तो साधक को यह देखना पड़ेगा कि अब्रह्मचर्य के अड्डे कहां-कहां हैं ? अथवा विघातक तत्त्वों के मोर्चे कहां-कहां हैं ? काम का चक्रव्यूह कहां-कहां और किस-किस प्रकार से साधक को फँसा लेता है और परास्त कर देता है ? उनसे कैसे बचना चाहिए ?
____इन्हीं प्रश्नों के उत्तर में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए विहित ये पांच भावनाएं साधक के सामने प्रस्तुत हैं। ये पांच भावनाएं साधक को अब्रह्मचर्य के अड्डों या ब्रह्मचर्य विघातक मोर्चों की जानकारी देकर उनसे वचने का बार-बार अभ्यास करने का संकेत देती हैं।
स्त्री-असंसक्तस्थान समितिभावना का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य के विघातक तत्त्वों का मोर्चा लगता है-स्त्रीसंसर्ग युक्त स्थानों पर। साधुजीवन में धर्मपालन करने के लिए जैसे भोजन पानी आवश्यक है, वैसे ही धर्मपालन करने तथा सर्दी. गर्मी, वर्षा आदि से तथा उपद्रवी लोगों से बचने के लिए कोई न कोई स्थान जरूरी है, जहां पर टिक कर साधु ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यक् आराधना कर सके और अपने शरीर को धर्मपालनार्थ टिका सके। स्थानप्राप्ति के लिए तो भिक्षाविधि में बताया ही गया था कि साधु उस स्थान के मालिक से या उसका कोई एक मालिक न हो तो शासक आदि से या कोई भी प्रत्यक्ष मालिक न हो तो शक्रन्द्र देव से अनुज्ञा ले कर ही उस स्थान का उपयोग करे । इस प्रकार साधु के लिए स्थान की समस्या हल हो जाने पर भी उसे वहां यह विवेक करना पड़ेगा कि वह जहां निवास करना चाहता है, वहां उसका संयम-पालन ठीक तरह से हो जायगा ? वहाँ उसके ज्ञान-दर्शन चारित्र में बाधक वातावरण तो नहीं है ? वहां आसपास संयमविघातक तत्त्व तो अपना मोर्चा नहीं लगाए हुए हैं ? अन्यथा, जिस साधु धर्म अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सुरक्षा के लिए वह किसी स्थान को पा कर भी अपना