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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
प्रोत हो जायगा, उसकी इन्द्रियाँ विषयविमुख हो जाएंगी और वह जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य का सुरक्षक बन जाएगा।
प्रणीताहारविरतिसमिति भावना का प्रयोग-ब्रह्मचर्य पर जैसे अश्लील वातावरण और बाह्य पदार्थों का प्रभाव पड़ता है, वैसे भोजन का भी प्रभाव पड़ता है। अन्य इन्द्रियों को जीतना फिर भी आसान है, मगर जिह्वेन्द्रिय को जीतना बड़ा कठिन है। इसीलिए भागवत पुराण में कहा है-'जितं सर्वं रसे जिते ।' अर्थात्स्वाद को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है। बड़े-बड़े साधक स्वाद के चक्कर में पड़ कर इस रसनेन्द्रिय के गुलाम बने हुए हैं। उत्तेजक, तामसी, चटपटा और स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन रोजाना ठूस-ठूस कर खाए और ब्रह्मचर्य का मन-वचन काया से पूर्णतः पालन करना चाहे; यह दुष्कर बात है। केवल जिह्वेन्द्रिय का भोजन ही क्यों, अन्य इन्द्रियों के आहार में भी सावधान न रहने पर साधक ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट हो सकता है। पांचों इन्द्रियों के विषयों पर राग-द्वेष करना वर्जित है, वैसे ही रागद्वेषरहित वीतराग भावना के नाम पर विषयों का अत्यधिक उपभोग भी बुरा है। महर्षियों का अनुभवयुक्त कथन है
'जहा दवग्गी परिधणो वणे समारुओ नोवसमं उवेइ। . एवेदियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्स वि ॥
अर्थात्-'प्रचुर इन्धन से युक्त वन में आग लगी हो और साथ में हवा चल रही है, तो जैसे वह आग बुझती नहीं है, वैसे ही अतिभोजी या अत्यन्त विषय भोग की ओर झुके हुए, ब्रह्मचारी साधक की इन्द्रियाग्नि प्रज्वलित होने पर विषयरूपी इन्धन मिलते रहने से बुझती नहीं है; सचमुच विषयाग्नि किसी के लिए भी हितकर नहीं होती।'
कभी-कभी साधु यह सोचता है कि 'जीभ का क्या है ? मैं जब चाहूं, तब उसे वश में कर लूगा ।' परन्तु उसकी यह धारणा आगे चलकर गलत साबित होती है। एक बार जीभ को किसी वस्तु की चाट लग गई तो वह बार-बार उसे लेने के लिए दौड़ेगी। जिस दिन वह मनोज्ञ एवं स्वादिष्ट वस्तु नहीं मिलेगी, साधक का चित्त बेचैन हो उठेगा। जीभ का गुलाम बना हुआ वह साधक किसी भी प्रकार से उस चीज को पाने का प्रयत्न करेगा। परन्तु स्वादिष्ट वस्तु के बारबार, प्रतिदिन और अत्यधिक मात्रा में खा लेने पर एक तो स्वास्थ्य पर उसका असर पड़ता है। दूसरे ब्रह्मचर्य पर उसका अचूक असर होता है। स्वादिष्ट और गरिष्ठ मसालेदार पदार्थ खाने से इन्द्रियाँ पुष्ट होकर मन को कामवासना के बीहड़ बन में भटका देती हैं । ब्रह्मचर्य से पतित होने के अलावा साधक का चित्त कई बार विक्षिप्त और व्याकुल भी हो जाता है, जब कि कामोद्रेक के समय उसे मनचाहा भोग नहीं मिलता। इसलिए