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दसवां अध्ययन : पंचम अपरिग्रह -संवरद्वार
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कर्म-बन्धन के कारण हैं । ये सब अन्तरंग परिग्रह के ही रूप हैं, इसलिए हेय समझ कर इनका त्याग करना चाहिए ।
सिद्धातिगुणा - सिद्धों के प्रथम समय में ही उत्पन्न होने वाले या आत्यन्तिक ३१ गुण होते हैं - ( १ ) मतिज्ञानावरणीय का क्षय, (२) श्रुतज्ञानावरणीय का क्षय, (३) अवधिज्ञानावरणीय का क्षय ( ४ ) मनः पर्यायज्ञानावरणीय का क्षय, (५) केवलज्ञानावरणीय का क्षय, (६) चक्षुदर्शनावरण का क्षय, ( 3 ) अचक्षु दर्शनावरण का क्षय (८) अवधिदर्शनावरण का क्षय ( ६ ) केवलदर्शनावरण का क्षय ( १० से १४ ) निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि - इन पांचों निद्राओं का क्षय, (१५) सातावेदनीय का क्षय, (१६) असातावेदनीय का क्षय, ( १७ ) दर्शन मोहनीय का क्षय, (१८) चारित्रमोहनीय का क्षय, ( १६ से २२) नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवाका क्षय, ( २३-२४) उच्चगोत्र और नीचगोत्र का क्षय ( २५-२६) शुभनाम और अशुभनाम का क्षय, ( २७ - से ३१) दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय का क्षय । इस प्रकार ८ कर्मों की मुख्य ३१ प्रकृतियों के क्षय रूप गुण सिद्धों को प्रथम समय में ही उपलब्ध हो जाते हैं । अथवा सिद्धों ३१ गुण इस प्रकार भी होते हैं - ५ संस्थान ( परिमंडल, वृत्त, त्र्यंस, चतुरस्र और आयत, ५ वर्ण, ५ रस, २ गन्ध, ८ स्पर्श, ३ वेद, इन २८ बातों से रहित तथा अकान, असंग और अरूप ये तीन मिलाकर कुल ३१ गुण हुए। ये गुण भी अशरीरी होते ही सिद्धों में प्रगट हो जाते हैं । परिग्रहमुक्ति के लिए ये गुण प्रेरणादायक होने से उपादेय हैं ।
जोगसंग - योग का अर्थ है - सन, वचन और काया के व्यापारों का संग्रह, यानी प्रशस्त मन वचन और काया की प्रवृत्तियों का संग्रह योग संग्रह कहलाता है । मोक्ष साधक साधुओं के लिए ३२ प्रकार की शुभ प्रवृत्तियों की शिक्षाओं का यहाँ संग्रह है । वह इस प्रकार है - १ आलोचना मोक्ष साधक योग के लिए शिष्य को आचार्य के सामने अपने दोषों को भलीभांति यथातथ्य रूप में प्रगट करना चाहिए, २ निरपलाप - आचार्य को भी मोक्ष- साधनायोग के लिए शिष्य द्वारा कृत आलोचना दूसरा सुने नहीं, इस प्रकार से सुननी चाहिए और दूसरों को कहनी नहीं चाहिए । ३ - आपत्ति आने पर स्वयं धर्म पर दृढ़ रहना और दूसरों को धर्म में दृढ़ करना, ४- दूसरों का सहारा लिये बिना ही उपधान आदि तप करना । ( ५ ) आचार्य आदि द्वारा दी गई सूत्रार्थ ग्रहण रूप करना । ( ६ ) शरीर का शृंगारादि की तपस्या या क्रिया का ढिढोरा नहीं पीटना,
तथा प्रत्युपेक्षाद्यासेवना रूप शिक्षा ग्रहण दृष्टि से संस्कार न करना । ( ७ ) अपनी प्रगट न करना । ( ८ ) निर्लोभी रहना ।