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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
( अगियाणे ) जो देवेन्द्र आदि के सुख एवं ऐश्वर्य आदि का निदान न करने वाला, ( अगारवे) ऋद्धि आदि के गौरव से रहित है, (अलुछे ) लम्पटतारहित है, ( अमूढमणवण कायगुत्ते) मूढतारहित मन-वचन काया से अपनी आत्मा को सुरक्षित रखता हुआ ( भगवतो सासणं) भगवान के शासन - आज्ञा पर ( सहहते ) श्रद्धा करता है, वह साधु होता है ।
मूलार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं - हे जम्बू ! जो आरम्भ और परिग्रह से निवृत्त होता है तथा क्रोध, मान, माया और लोभ से विरत होता है, तथा परिग्रह से रहित और इन्द्रियों तथा कषायों का संवर-संयम करने वाला है, वही साधु कहलाता है | अन्तरंग परिग्रह का एक भेद असंयम है । दो भेद राग और द्वेष हैं, पापजनक मन-वचन-काया के भेद से तीन दण्ड हैं, तथा ॠऋद्धि, रस और साता गौरव के भेद से तीन गौरव हैं। तीन गुप्तियां हैं- मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायाप्ति । तीन विराधनाएं हैं ज्ञान की, दर्शन की और चारित्र की । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्लये चार ध्यान हैं । आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ हैं । स्त्री भक्त, राज तथा देश के भेद से ४ विकथाएँ हैं । ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति और उच्चारप्रस्रवण-खेलजलसिंघाण-परिष्ठापनिका समिति, ये ५ समितियाँ हैं । स्पर्शनादि ५ इन्द्रियाँ हैं । अहिंसा आदि ५ महाव्रत हैं । पृथ्वीकायादि ५ स्थावर काय और एक सकाय मिलकर ६ जीवनिकाय हैं । कृष्णादि ६ लेश्याएँ हैं । इहलोक भय आदि ७ भय हैं । जातिमद आदि ८ मद हैं । ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियाँ हैं । उत्तम क्षमा आदि दस श्रमण धर्म हैं । श्रावक की ११ प्रतिमाएँ हैं । भिक्षु की १२ प्रतिमाएँ हैं । क्रियास्थान तेरह हैं । चौदह जीवसमूह ( जीवसमास ) हैं । १५ प्रकार के परमाधार्मिक असुरजाति के देव हैं । जिसमें गाथा नाम का १६ वां अध्ययन है, ऐसे सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन हैं । सत्तरह प्रकार के असंयमस्थान हैं । १८ प्रकार का अब्रह्मचर्य है । ज्ञातासूत्र के १६ अध्ययन हैं । बीस प्रकार के असमाधि स्थान हैं | चारित्र को मलिन करने वाले २१ शबल दोष हैं । २२ प्रकार के परिषह हैं । सूत्रकृतांगसूत्र के २३ अध्ययन हैं । २४ प्रकार के