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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
रस द्वारा करुणा पैदा करने वाली तप, संयम और ब्रह्मचर्य का आंशिक या पूर्णरूप से घात करने वाली कथाएँ ब्रह्मचारी न करे, न सुने और न ही चिन्तन करे । इस प्रकार स्त्री कथा से विरक्तिरूप सम्यक् प्रवृत्ति समिति का प्रयोग करने से ब्रह्मचारी की आत्मा ब्रह्मचर्य से सुसंस्कृत हो जाती है । उसका मन ब्रह्मचर्यं में एकाग्र हो जाता है और इन्द्रियां विषयसेवन की ओर नहीं दौड़ती । अतः वह इन्द्रियविजेता साधु ब्रह्मचर्यं की पूर्णं सुरक्षा कर लेता है ।
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स्त्रीरूप दर्शन विरतिसमिति नामक तीसरी भावना इस प्रकार हैस्त्रियों का मधुर हास्य, विकारयुक्त कथन, हाथ पैर आदि अंगों की चेष्टाएँ, कटाक्षआदि से या भ्र चेष्टापूर्वक निरीक्षण, गति-चालढाल, विलासनेत्रादि विकार, अभीष्टवस्तु की प्राप्ति से अभिमानजन्य अनादरपूर्ण चेष्टा, नृत्य, गीत, वीणावादन, शरीर की लम्बाई-चौड़ाई आदि के रूप में डीलडौल या ढांचा, रंगरूप, हाथ, पैर और नेत्र का लावण्य-सौन्दर्य, इन सबके प्रसाधनप्रकार तथा शरीर के गुप्त ( ढकने योग्य लज्जाजनक ) अंग तथा ये और दूसरे भी इसी प्रकार के तप, संयम और ब्रह्मचर्य का पूर्ण या आंशिक रूप से घात करने वाले इन पापकर्मों को ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाला साधु न आँखों से देखने की, न मन से चिन्तन करने की और न वाणी से कहने की इच्छा करे । इस प्रकार स्त्रीरूपविरतिसमिति के प्रयोग से ब्रह्मचारी की अन्तरात्मा ब्रह्मचर्यं के संस्कारों से युक्त हो जाती है । उसका मन ब्रह्मचर्य में तल्लीन हो जाता है, उसकी इन्द्रियाँ विषयों से विमुख हो जाती हैं। वही जितेन्द्रिय साधु ब्रह्मचर्य की भलीभांति रक्षा कर लेता है । चौथी पूर्वरतपूर्वकीड़ित विरतिसमिति भावना है। वह इस प्रकार है - पहले गृहस्थ अवस्था में अनुभव की गई कामक्रीड़ा या पूर्वअनुभूत द्यूतादि क्रीड़ा, श्वसुर - कुल के साले -साली या साले के स्त्रीपुत्रादि परिवार के पूर्वपरिचित व्यक्तियों को देखने, उनके सम्बन्ध में कहने और स्मरण करने का त्याग करे । नवविवाहित वर वधू के घर में प्रवेश के समय, विवाह के समय चूड़ाकर्मसंस्कार के अवसर पर तथा वसंत पंचमी आदि तिथियों पर, यज्ञों-पूजाओं तथा उत्सवों के मौके पर शृङ्गाररस के गृहरूप सुन्दर वेशभूषा से सुसज्जित स्त्रियों के हाव (मुखविकार), भाव (मनोविकार), हाथ-पैर आदि का कोमल विन्यास - संचालन, चित्त की व्यग्रता से यानी लापरवाही से ढीलाढाला वस्त्र