________________
नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर
७२६ मुनिरपि वियति विततनानाद्भुतविभ्रमदर्शकोऽपि हि । स्फुटमिह जगति तदपि न स कोऽपि हि यदि नाक्षाणि रक्षति ॥"
अर्थात्--कोई सकल विश्व की कलाओं में पारंगत कवि भी क्यों न हो, पण्डित भी क्यों न हो ? चाहे वह समस्त शास्त्रों के गहन तत्त्वों का ज्ञाता विद्वान् हो, चाहे वेदविशारद हो; अथवा आकाश में विद्यामन्त्र आदि के चमत्कारों को दिखाने वाला हो, परन्तु यदि वह इन्द्रियों का विजेता ब्रह्मचारी) नहीं है तो वह कुछ भी नहीं है। अर्थात् न तो वह कवि है, न पण्डित है और न मुनि ही है। इसलिए प्रत्येक साधक को साधना के साथ-साथ और बाद में भी ब्रह्मचर्य का शुद्ध आचरण करना जरूरी है । यही ब्रह्मचर्य की महनीयता है।
ब्रह्मचर्य का लक्षण-ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-ब्रह्म और चर्य । इसका स्पष्ट अर्थ होता है-'ब्रह्म में विचरण करना।' ब्रह्म का अर्थ आत्मा भी है, परमात्मा भी है, विद्याध्ययन भी है, सेवा और योग साधना आदि भी है। केवल वीर्यरक्षा या सिर्फ जननेन्द्रियसंयम ब्रह्मचर्य का अधूरा अर्थ है । इन्द्रियविषयों एवं कामवासनाको उत्तेजित करने वाले जितने भी कारण हैं, उन सबसे दूर रहना, ब्रह्मचर्य का निषेधात्मक रूप है। यानी किसी भी स्त्री या अन्य में आसक्त होकर वीर्यपात न करना, मैथुन सेवन न करना, अब्रह्मचर्य से विरत रहना, यह भी ब्रह्मचर्य का निषेधात्मक रूप है। ब्रह्मचर्य का विधेयात्मक रूप तो अपनी आत्मा या परमात्मा की उपासना में लगना है। वीर्य रक्षा करना, योगसाधना करना, विद्याध्ययन करना, किसी विशाल ध्येय (राष्ट्रसेवा, समाज सेवा, विश्व सेवा, बालक सेवा आदि) को सामने रखकर या निश्चित करके तदनुसार आचरण करना
और संचित वीर्य शक्ति को विश्व के प्राणियों के प्रति मातृवत् वात्सल्य भाव रख कर उनके जीवन निर्माण में लगाना - ये सब आत्मोपासना के लिए सहायक ब्रह्मचर्य के विधेयात्मक रूप हैं । इन दोनों विधेयात्मक-निषेधात्मक रूपों से ब्रह्मचर्य के बाह्य और आभ्यन्तर ये दो-दो भेद हैं । जब आत्मा अपने स्वरूप में रमण करता है, तब विधेयात्मक अभ्यन्तर ब्रह्मचर्य होता है। परमात्मा (शुद्ध आत्मा, की उपासना, जगत् के समस्त प्राणियों के प्रति सर्वभूतात्मभूत बनकर वात्सल्य भाव से ओतप्रोत होकर विश्वात्मभावमें रमण करना, ये सब आत्मरमणता के ही आभ्यन्तर ब्रह्मचर्य के विधेयात्मक अंग हैं । इसी प्रकार रागद्वोष से रहित होना, आत्मसेवा या आत्मरमणता से विमुख करने वाले मन या इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति या द्वेष से दूर रहना, कषाय, मोह, अज्ञान, मिथ्यात्व, कामवासना आदि आत्मगुणों के विरोधी तत्त्वों से दूर रहना, निषेधात्मक आभ्यन्तर ब्रह्मचर्य है । वीर्य रक्षा करना, जननेन्द्रिय का संयम करना, राष्ट्र सेवा, समाज सेवा या विश्व के जीवन निर्माण, या कल्याण आदि के