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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
अज्जवसाहुजणाचरितं-जो वक्र या कुटिल साधक होते हैं, वे प्रायः तर्कवितर्क किया करते है, कि ब्रह्मचर्य के पालन में क्या आनन्द आता है ? इसे भंग कर दिया जाय तो क्या हानि है ? इसलिए ऐसे वक्र या कुटिलं साधक ब्रह्मचर्य का पालन करते भी हैं, तो शर्माशर्मी से ही, मन से नहीं । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं कि जो सरलता से सम्पन्न साधुजन हैं, वे ही दृढ़ता से इसका आचरण करते हैं।
मोक्खमग्गं विसुद्धसिद्धिगतिनिलयं—इन दोनों पदों में अन्तरंग ब्रह्मचर्य को ही सूचित किया गया है । ब्रह्म यानी आत्मा में विचरण करना ही अन्तरंग ब्रह्मचर्य है, जो प्रत्यक्ष मोक्षमार्ग है । वीर्यरक्षा या मैथुनत्याग तो बाह्य ब्रह्मचर्य है, जो परम्परा से मोक्ष का मार्ग है । चूकि धर्मध्यान और शुक्लध्यान से ही शुद्ध आत्मा में रमण होता है। और ध्यान मोक्ष का साक्षात् कारण है । इसलिए मोक्ष का साक्षात्मार्ग अन्तरंग ब्रह्मचर्य है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप में रमण करने से ही विशुद्ध सिद्धिगति मिल सकती है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप में रमण करने का ही दूसरा नाम ब्रह्मचर्य है । इसलिए ब्रह्मचर्य को 'विशुद्ध सिद्धिगति का घर' कहा है।
सासयमव्वाबाहमपुणन्भवं पसत्थं सोमं ...... मक्खयकरं-- इन सबका अर्थ स्पष्ट है । ब्रह्मचर्य का फल कभी नष्ट नहीं होता, इसलिए यह शाश्वत है। इसके पालन में कोई रोकटोक या अड़चन नहीं होती, इसलिए यह अव्याबाध, प्रशस्त-मंगलमय, सौम्य, शुभ, शिव, अचल और अक्षय है। इसके पालन करने से किसी तरह का भी खटका नहीं और न कोई क्षति ही होती है।
ब्रह्मचर्य के शुद्ध पालनकर्ता ब्रह्मचर्य का पालन दुष्कर होते हुए भी संसार में उसका निष्ठापूर्वक शुद्ध पालन करने वाले अतीत में हुए हैं, भविष्य में होंगे और वर्तमान में हैं । परन्तु मुख्यतया इसके शुद्ध पालनकर्ता कौन-कौन होते हैं ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं—'जतिवर सारक्खितं सुचरियं सुसाहियं नवरि मुणिवरेहि महापुरिस “ सया विसुद्ध"इन पदों का शब्दार्थ तो स्पष्ट किया जा चुका है । इसका आशय बड़ा ही गंभीर है । वह यह कि ब्रह्मचर्य-पालन करना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़ योगी तक ब्रह्मचर्य से डिग जाते हैं, महान् से महान् तपस्वी भी ब्रह्मचर्य से विचलित होते देखे-सुने गये हैं, औरों का तो कहना ही क्या ? इसी दृष्टि से शास्त्रकार कहते हैं कि संयमियों में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे ही ब्रह्मचर्य की सम्यक् प्रकार से सुरक्षा करते हैं। कैसा भी प्रसंग क्यों न हो, वे ब्रह्मचर्य से जरा भी डिगते नहीं । साथ ही आत्मा और जड शरीर, कामसुख और मोक्षसुख, ब्रह्मचर्य और अब्रह्मचर्य का भलीभांति मनन करने वाले महामुनिवर ही ब्रह्मचर्य का सुचारुरूप से आचरण करते हैं, इसकी सम्यक् साधना करते हैं । वे काम विकार के कारण उपस्थित होने पर भी चट्टान की तरह अडोल रहते हैं ।