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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
अर्थात् – 'हजारों बाल ब्रह्मचारी ब्राह्मण संतान उत्पन्न किये बिना ही स्वर्ग में चले गये, ऐसा धर्मशास्त्र कहते हैं ।'
इसलिए शुद्ध रूप से ब्रह्मचर्य का पालन प्रायः कुलीन, संस्कारी, धीर, धर्मवीर और धृतिमान व्यक्ति ही करते हैं । सव्वभव्वणानि
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ब्रह्मचर्य का आचरण सामान्य रूप से सभी भव्यजन करते हैं । भव्य विचारों से सम्पन्न व्यक्ति ही भव्य भावनाओं से ओत-प्रोत होगा, और वही कल्याण योग्य होने से ब्रह्मचर्य को कल्याणकरी समझेगा, एवं उसका आचरण करेगा । अभव्य व्यक्ति के हृदय में ब्रह्मचर्य पालन के प्रति श्रद्धा, रुचि और प्रतीति ही नहीं होगी ।
निस्संकियं निभयं नित्तु सं निरायासं निरुवलेवं निव्वुतिघरं - इन पदों का आशय यह है कि ब्रह्मचर्य पालन का फल इस लोक में प्रत्यक्ष मिलता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य पालन करने वाले का शरीर भी सुडोल, सुरूप, सशक्त और सुदृढ़ बनता है, मन भी बलवान बनता है, उसकी स्मरण शक्ति भी तीव्र होती है, इसलिए ब्रह्मचर्य - पालन के विषय में किसी को कोई भी शंका नहीं होती, न होनी चाहिए । अथवा ऐसा अर्थ भी किया जा सकता है कि ब्रह्मचारी किसी भी शंका का विषय नहीं होता । ब्रह्मचर्य पालक सदा निर्भय होता है, उसमें साहसिकता और निर्भयता तो कूट-कूट कर भरी होती है । ब्रह्मचारी किसी भी अच्छे कार्य को करने में हिचकिचाता नहीं और न ही उसे किसी से भय होता है । तुषरहित शुद्ध चावल के समान ब्रह्मचारी विकार रहित शुद्ध ब्रह्मचर्य से सम्पन्न होता है, अतएव वह सारवान् बलवान् होता है । ब्रह्मचर्य सम्पन्न साधक को ब्रह्मचर्य पालन में कोई परिश्रम नहीं पड़ता, अनायास ही पालन हो जाता है। अब्रह्मचर्य सेवन आयासयुक्त है, उसमें कई खटपटें करनी पड़ती हैं । दूसरा अर्थ यों भी हो सकता है कि "ब्रह्मचर्य पालन का ऐसा कोई खेद-पश्चात्ताप ब्रह्मचारी को नहीं होता कि हाय ! मैं व्यर्थ ही ब्रह्मचर्य - पालन करके निःसंतान रहा या स्त्री प्रसंग से दूर रहा !" ब्रह्मचारी सांसारिक आसक्ति से बहुत दूर रहता है। जो अब्रह्मचारी होता है, वह सांसारिक मोह माया में फंसा रहता है । उसी में अपने को सुखी मानता है, लेकिन बाद में उसका नतीजा भयंकर दुःखद होता है । ब्रह्मचर्य से चित्त में स्वस्थता, शान्ति और समाधि रहती है, इसलिए इसे निर्वृति का घर कहा है । क्योंकि ब्रह्मचर्यविहीन व्यक्ति अधिकाधिक राग और मोह में फंसा रहता है, जिससे उसका चित्त सदा व्याकुल रहता है । रागी पुरुष के अशान्तियुक्त मन के ये उद्गार हैं
'क्व यामः कुत्र तिष्ठामः, किं ब्रूमः किं च कुर्महे । रागिणश्चिन्तयन्त्येवं, नीरागाः सुखमासते ।'