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नौवां अध्ययन : ब्रह्मचर्य-संवर
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अर्थात्- 'कहाँ जाए ?, कहाँ रहें ?, क्या कहें ?, क्या करें, इस प्रकार की उधेड़बुन में विषयों के रागी रात दिन चिन्तित रहते हैं, लेकिन रागरहित ब्रह्मचारी सुखपूर्वक रहते हैं ।' उन्हें दुनियाँ का राग नहीं सताता।
इसलिए ब्रह्मचर्य शंका, भय, आयास, लिप्तता एवं अशान्ति से दूर है।
नियम निप्पकंपं- ब्रह्मचारी नियम में हमेशा निश्चल रहता है। प्रतिकूल वातावरण में भी ब्रह्मचारी निरतिचार रहता है। बाह्य कारण उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते । इसका एक अर्थ यह भी है कि ब्रह्मचर्यव्रत निरपवाद होता है। बाकी के अहिंसा आदि व्रतों में कदाचित् अपवादवश छूट भी दी जाती है, लेकिन ब्रह्मचर्य में जरा-सी भी छूट नहीं मिलती। किसी भी हालत में इसका खण्डन विहित नहीं है। जैसा कि भाष्यकार ने कहा है
'न वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्ध वा जिणवारदेहि ।
मोत्त मेहुणभावं, ण तं विणा रागदोसेहिं ।' . अर्थात- जिनेन्द्रदेवों ने मैथुनभाव-अब्रह्मचर्य को छोड़ कर अन्य व्रतों का निरपवाद रूप से न तो एकांत निषेध ही किया है और न आज्ञा दी है । सिर्फ मैथुनभाव का ही निरपवाद रूप से त्याग बताया है; क्योंकि मैथुनभाव रागद्वेष के बिना होता ही नहीं।
___ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय—'ब्रह्मचर्य जितना महान् और मूल्यवान है, उतनी ही कठिन और साहसपूर्ण उसकी सुरक्षा है। संसार में रत्न जैसी कीमती चीजों की रक्षा और जतन के लिए लोग बहुत ही सावधानी रखते हैं और साहसपूर्ण कदम उठाते हैं । यहाँ ब्रह्मचर्य की सुरक्षा एक अर्थ में आत्मा की ही सुरक्षा है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार ब्रह्मचर्य की महिमा के अन्तर्गत ही उसकी सुरक्षा का निर्देश करते हैं—'तवसंजम मूलदलियम्मं पंचमहव्वयसुरक्खियं . ....झाणवर ..... मझप्पदिन्नफलिहं' । इन पंक्तियों का अर्थ तो पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। इनका रहस्यार्थ यह है कि तप और संयम दोनों मिलकर ब्रह्मचर्य की मूल पूंजी के समान हैं । ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए तप-संयम की मूल पूंजी को सर्वप्रथम सुरक्षित रखना जरूरी है । बाह्य और आभ्यन्तर तप, ब्रह्मचर्य को सुरक्षित रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। यह बात सुनिश्चित है कि जिसके जीवन में ये दोनों प्रकार के तप होंगे, वह ब्रह्मचर्य धन की लुभावने इन्द्रिय-विषयों, कठोर
१. ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के विस्तृत उपायों के बारे में उत्तराध्ययन सूत्र का १६ वाँ अध्ययन पढ़ें।
-संपादक ४६