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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
यह चौर्यवृत्ति है । जो काम बड़ों से पूछे बिना चुपके से होता है, वह प्रच्छन्नवृत्ति चोरी की बहिन है । इसके अलावा सेवा करने या पारणा ला देने का विनय भी सार्मिकों में परस्पर सहयोग और प्रेम की भावना पैदा करता है। बड़ों को अपने लिए छोटों से विनय प्राप्त करने तथा सेवा लेने का अधिकार है। विनय न होने पर यह अधिकार का हरण हो जायगा, जिसे चोरी की कोटि में ही गिना जाएगा। अतः शास्त्रपाठ लेना हो, पाठ दोहराना हो, कुछ देना हो, लेना हो, पूछना हो, उपाश्रय से बाहर जाना हो,अन्दर प्रवेश करना हो या और कोई भी कार्य हो,सर्वत्र परस्पर विनयव्यवहार से इस महाव्रत में चमक आएगी, स्वार्थ त्याग की मात्रा बढ़ेगी। साधुओं में परस्पर स्नेह-सौहार्द, वात्सल्यभाव, नम्रता, सहयोग आदि गुण बढ़ेंगे। इस प्रकार के चिन्तन की चांदनी में साधक अपनी साधना करेगा तो वह इस महाव्रत की भी सुरक्षा कर सकेगा, और अपना जीवन भी आनन्दित बना लेगा।
पांचों भावनाओं के द्वारा प्राप्त होने वाला- सुफल - ये पाँचों भावनाएं साधक के अचौर्य महाव्रत की रक्षा तभी कर सकेंगी, जब वह साधक प्रतिदिन मनवचन-काया से इन पांचों भावनाओं का आजीवन चिन्तन और प्रयोग करेगा। इससे प्राप्त होने वाले सुफल के बारे में पांचों भावनाओं के अन्त में शास्त्रकार स्वयं कहते हैं । “समितिजोगण भावितो भवति अंतरप्पा निच्चं अहिकरण ......"ओग्गहरुई ।' तात्पर्य यह कि ये पांचों भावनाएं चिन्तनमनन करने वाले की अन्तरात्मा को इतना संस्कारी बना देती हैं कि वह समस्त बुरे आचरणों के करने-कराने से होने वाले पापकर्मों से विरक्त होकर हमेशा दिया हुआ या अनुज्ञाप्राप्त पदार्थ ही ग्रहण करना पसंद करता है।
___ उपसंहार-शास्त्रकार इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि तीसरा दत्तानुज्ञात नामक संवरद्वार भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित, प्रतिपादित एवं उपदिष्ट है । कहाँ तक कहें । यह सर्वश्रेष्ठ और प्रशस्त-मंगलमय है।
___इस प्रकार सुबोधिनी व्याख्या-सहित श्री प्रश्नव्याकरणसूत्र के अदत्तादानविरमण नामक तीसरे संवरद्वार के रूप में आठवां अध्ययन समाप्त हुआ।