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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र जल से सींचा हुआ, वंदनवार लगा,चौक पूरकर इत्यादि प्रकार से सजाया हुआ, दर्भघास आदि से छाया हुआ, खड़िया मिट्टी आदि से सफेद पोता हुआ, गोबर आदि से लीपा हुआ, बार-बार लोपा हुआ, ठंड मिटाने के लिए प्रज्वलित अग्नि से युक्त, प्रकाश आदि के लिए वर्तन-भांड आदि साधु के निमित इधर-उधर लाये-लेजाये जाते हों (च) तथा (जत्थ) जहाँ, (अंतोहि च) अन्दर और बाहर (असंजओ) जीवविराधना (संजयाण अट्ठा) संयमी साधुओं के प्रयोजन-निमित्त से होती हो, (से तारिसए) ऐसा वह (सुत्तपडिकुट्ट) शास्त्र में निषिद्ध (उवस्तओ) उपाश्रय - स्थान (हु) अवश्य (वज्जेयव्वो) छोड़ देना चाहिए अथवा ऐसा उपाश्रय त्याज्य समझना चाहिए । (एवं) इस प्रकार (विवित्तवासवसहिसमितिजोगेण) एकान्त निर्दोष स्थान में निवास रूप विविक्तवासवसति समिति भावना के योग से (भावितो) भावनायुक्त-संस्कारित (अंतरप्पा) अन्तरात्मा, (निच्चं) नित्य (अहिकरण-करग-कारावणपावकम्मविरतो) दोषयुक्त आचरण करने और करवाने रूप पापकर्म से विरक्त हुआ साधु (दत्तमणुनाय ओग्गहरुई) वस्तु के स्वामी आदि द्वारा दत्त-दिया हुआ तथा अनुज्ञात-आज्ञाप्राप्त पदार्थ ग्रहण करने को रुचि वाला (भवति) होता है।
(बितीयं) दूसरी अवग्रह समिति भावना इस प्रकार है-(आरामुज्जाण- . काणणवणप्पदेसभागे) वाटिका, बाग, बगीचे, नगर के निकटवर्ती जंगल, वन के एक प्रदेश भाग में (जं) जो कुछ (इक्कडं) तृणविशेष, (व) अथवा (कठिणक) हरी खड़घास (जंतुगं) तालाब आदि में पैदा होने वाली घास, (परा-मेर-कुच्च-कुस-डभपलाल-मूयग-वल्लय-पुप्फ-फल-तय-प्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सक्करादी) परा नामक तृण, मज का तृण, ऐसा घास जिससे जुलाहे कंचियाँ बनाते हैं, कुश, दर्भ, भूसा, मेवाड़ देश में होने वाला तण विशेष, पर्वतीय तण विशेष, पुष्प, फल, छाल, नये पत्ते, कंद, मूल, घास, लकड़ी और कंकड़ आदि (सेज्जोवहिस्स अट्ठा) शय्यासंस्तारक-बिछौनेरूप उपधि-सामग्री के लिए (गेण्हइ) ग्रहण करना तथा (उग्गहे) उपाश्रय में रही हुई वस्तु भी (अदिन्न मि गिण्हउं) विना दिये-या आज्ञा दिये बिना लेना (न कप्पए) योग्य नहीं है । उपाश्रय की आज्ञा उसके मालिक द्वारा दे दिये जाने पर भी (हणि हणि) प्रतिदिन (उग्गहं) उपाश्रय में स्थित ग्रहण करने योग्य वस्तु के लेने व सेवन करने की (अणुन्नविय) आज्ञा मिलने पर ही (गेण्हियव्वं) ग्रहण करना चाहिए। (एवं) इस प्रकार (उग्गहसमितिजोगेण) अवग्रहसमिति के योग से (भावितो) संस्कारयुक्त (अंतरप्पा) साधु को अन्तरात्मा (निच्चं) सदा (अहिकरण-करण-कारावण-पाव