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साठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
६८७ एक अंग है । (तम्हा) इसलिए (गुरुसु) गुरुओं का, (साहुसु) साधुओं का (य) एवं (तवस्सीसु) तपस्वियों का (विणओ पउजियव्वो) विनय-व्यवहार करना चाहिए। (एवं) इस प्रकार (विणएण) विनय भावना से (भाविओ) भावित--संस्कारित (अंतरप्पा) अन्तरात्मा (निच्चं) हमेशा (अहिकरण-करण-कारावणपावकम्मविरते) दोषयुक्त आचरण करने-कराने के पापकर्म से विरत साधु (दत्तमणुन्नाय उग्गहरुइ) दत्तानुज्ञात पदार्थ को ग्रहण करने में रुचिवाला (भवइ) हो जाता है ।
(एवमिण) इस प्रकार यह (संवरस्स दारं) दत्तानुज्ञातरूप तीसरे संवर का द्वार (सम्म) सम्यक् प्रकार से (संचरियं) आचरित (होइ) हो जाता है, (सुपणिहियं) भलीभाँति दिल-दिमाग में स्थिर हो जाता है । (एवं) इस प्रकार पूर्वोक्त पांच भावनाओं से मनवचन काया को सुरक्षा कर लेने पर इस तीसरे संवरद्वार-अचौर्य महाव्रत का भलीभाँति पालन हो जाता है। (जाव) यावत् (आघवियं) भगवान महावीर द्वारा कथित है, (यहां तक पूर्वसूत्रोक्त पाठ की तरह समझ लेना चाहिए) तथा यह तृतीय संवरद्वार (सुदेसियं) भगवान् द्वारा समुपदिष्ट है, (पसत्थं) प्रशस्त - उत्तम है (ततियं) तीसरा (संवरदार) संवर द्वार (समत्तं) समाप्त हुआ। (तिबेमि) इस प्रकार मैं (सुधर्मास्वामी) कहता हूँ।
मूलार्थ---इस अचौर्यव्रत पर सिद्धान्त-प्रवचन भगवान महावीर ने परद्रव्यहरण से विरतिरूप व्रत की रक्षा के हेतु भलीभाँति फरमाया है, जो कि आत्मा के लिए हितकारी है, जन्मान्तर में सहायक है, भविष्य में आत्मा के लिए कल्याणकर है, निर्दोष और न्यायसंगत है। यह कुटिलता से रहित है, सर्वश्रेष्ठ है और सम्पूर्ण दुःखों और पापों को विशेष रूप से शान्त करने वाला है।
इस तीसरे दत्तानुज्ञात नामक संवरद्वार की पांच भावनाएँ परद्रव्यहरण से विरतिरूप अचौर्यव्रत की चारों ओर से रक्षा के लिए हैं ।
पहली विविक्तवासवसतिसमिति भावना है, जो इस प्रकार है–साधु को देवालय, सभा, प्याऊ, संन्यासियों के मठ, वृक्ष के मूलप्रदेश, वाटिका, कन्दराएँ, लोह आदि की खानें, पर्वत की गुफाएँ, लुहार, बढ़ई आदि के काम करने के स्थान या चूना आदि पीसने के घर, बाग-बगीचे, रथ आदि सवारियाँ रखने की यानशालाएँ, घर का सामान रखने के भंडार आदि गृह, यज्ञादि के मंडप, सूने घर, श्मशान, पर्वतीय गृह, दूकानों या इसी प्रकार के अन्य स्थान, जो पृथ्वी, जल. बीज, हरी दूब, घास आदि वनस्पति एवं