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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
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अपहरण का कारण होने से चोरी का भागी होता है। इसी प्रकार दान का अपलाप करने वाला भी इस दान से दाता को प्राप्त होने वाले यश का अपहरण करता है।
नि:स्वार्थ सेवा से अनायास अचौर्य की आराधना अचौर्यव्रत की आराधना करने वाले को अपनी उद्दाम इच्छाओं, आशाओं, स्पृहाओं या बदले में कुछ चाहने की वृत्ति को तिलाञ्जलि देनी पड़ती है । इस प्रकार की अचौर्य की आराधना सहज, सरल और आनन्दपूर्वक हो जाती है। शास्त्रकार ने अचौर्य-आराधना को सरलतम बनाने के लिए वैयावृत्य-सेवा करने का उल्लेख किया है-'अच्चंत बाल-दुब्बल-गिलाणबुड्ढ... निज्जरट्ठी वेयावच्चं अणिस्सियं बहुविहं दसविहं करेति।" इसका अर्थ स्पष्ट है। केवल कुछ पदों का स्पष्टीकरण करना आवश्यक है। .
प्रवृत्ति या प्रवर्ती-प्रवर्तक' उसे कहते हैं जो संघ का हितैषी अनुभवी साधु हो । प्रवर्तक साधु साधुओं की योग्यता देखकर उन्हें तप, संयम और योग में प्रवृत्त करता है, और अयोग्य जान कर कुछ को तप आदि से निवृत्त करता है ।
जो स्वयं व्रताचरण करते हैं, दूसरों से व्रत का आचरण करवाते हैं, संघ का संचालन, रक्षण आदि करने में जो समर्थ हैं तथा आगम के रहस्यज्ञ होते हैं, वे साधुश्रेष्ठ आचार्य कहलाते हैं।
आगम के अर्थ का जो गुरुमुख से अध्ययन करते हैं, उसके असली रहस्य को समझते हैं, दूसरों को अध्ययन करवाते हैं, वे समाहितचित्त साधुरत्न उपाध्याय कहलाते हैं।
नवदीक्षित को शैक्ष, समान वेष और समान धर्मानुयायी को साधर्मी, बेलातेला आदि तथा आतापन योग आदि तप करने वाले को तपस्वी कहते हैं। गच्छ के समुदाय को या एक आचार्य की शिष्य परम्परा को कुल कहते हैं। कुलसमूह को या वृद्ध साधुओं की शिष्य परम्परा को गण कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि निर्जरा-कर्मक्षय का कारण एवं अपना कर्तव्य समझकर बदले में कीति,पद या किसी वस्तु की आकांक्षा न रखकर आहार-पानी,वस्त्र-पात्र आदि तथा अन्य अनेक तरह से इन अलग-अलग कोटि के साधुओं की अम्लान भाव से सेवा करने वाला साधु अनायास ही अचौर्यव्रत की आराधना कर लेता है। क्योंकि अहर्निश सेवा में रत रहने वाले साधु की अपनी ख्वाहिशें या इच्छाएं स्वतः ही कम हो जाती हैं।
१. 'तव संजमजोगेसु जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ ।
असहं च निवत्तेइ गणतत्तिलोपवित्ती उ ॥१॥' प्रवर्ती या प्रवर्तक का लक्षण इस गाथा से स्पष्ट है ।
-संपादक