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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
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इसलिए अप्रीतिपूर्वक देना वास्तव में देना नहीं है, फैकना है । अगर अप्रीतिवाला दाता शर्माशी या किसी के दबाव से दे भी दे, पर बाद में निन्दा करने या कभी कोई झूठा इलजाम किसी साधु पर लगा देने अथवा साम्प्रदायिक द्वेषवश श्रमणों को जहर मिलाकर भोजन देने आदि की भी संभावना है। इससे धर्म की अपभ्राजना होने या साधु के पथभ्रष्ट होने की भी संभावना है। चौकी, पट्टे,मकान आदि किसी गाँव में प्रेमपूर्वक किसी के द्वारा न मिलने पर साधु को कुछ शारीरिक कष्ट जरूर सहना पड़ेगा, लेकिन अप्रीति रखने वाले गृहस्थ के पास जाकर याचना करने से तो साधु की खुद की आत्मा में ग्लानि पैदा होगी ; दीनभावना पैदा होगी। आत्मा का भी पतन होने की संभावना है। इसी उद्देश्य को लेकर शास्त्रकार स्पष्ट कहते हैं'वज्जेयव्वो सव्वकालं अचियत्तघरपवेसो अचियत्तभत्तपाणं ...." न य अचियत्तस्स गिहं पविसइ, न य अचियत्तस्स गेण्हई ...."न य अचियत्तस्स सेवई ... "उवगरणं ।' इसका अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है।
___ अचौर्यव्रत का माहात्म्य-अचौर्यव्रत इतना महान् है कि इसे जीवनव्यवहार . में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है । इसका प्रभाव साधक जीवन के सभी व्यवहारों, आदतों, वृत्तियों और संस्कारों पर पड़े बिना नहीं रहता। साथ ही मानव जीवन के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों पर भी इस व्रत का प्रभाव पड़ता है। सर्वक्षेत्र-स्पर्शी होने के अतिरिक्त यह सर्वप्राणिव्यापी
और सार्वभौम होने से बहुत ही व्यापक है। इसी कारण इसे 'महावत' कहा है। साथ ही इहलौकिक और पारलौकिक गुणों में कारणभूत होने से इसे गुणव्रत भी बताया गया है । साथ ही यह व्रत सभी धर्मों के साथ सम्बद्ध होने से उनकी पराकाष्ठा तक को यह स्पर्श करता है। क्योंकि अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी तभी भलीभाँति पालन होगा, जब साधु के जीवन में मन-वचन-काया से अचौर्यवृत्ति आ जाएगी, इसलिए इसे 'नैष्ठिकव्रत' भी कहा है । निराश्रव तो इसलिए है, कि जब अचौर्य का पालन होगा तो कर्मों के आगमन के मूल कारण अवरुद्ध हो जायेंगे । निम्रन्थता का यह साकाररूप है। क्योंकि साधक के मन में उठने वाली असीम इच्छाएँ और अनन्त तृष्णाएं मन और वचन दोनों को कलुषित बना देती हैं, और हाथ पैरों को भी मनोवांछित पदार्थ को लेने के लिए विक्षब्ध बना देती हैं । परन्तु जब साधु के जीवन में अचौर्य महाव्रत आ जाता है,तो उसकी असीम तृष्णाओं के पीछे-पीछे चलने वाली इच्छाओं का निग्रह हो जाता है, हाथ-पैर भी नियंत्रित और शान्त हो जाते हैं, मन और वचन भी शान्त होकर एकमात्र आत्मशान्ति और संतोष के साम्राज्य में तल्लीन हो जाता है । मनुष्य की इच्छाएँ जब बढ़ जाती हैं और वे तृष्णा का रूप ले लेती हैं तो उसका चित्त चंचल हो जाता है और हाथ-पैर उस चीज को पाने के लिए सचेष्ट हो