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पंचम अध्ययन : परिगह-आश्रव
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बढ़ेगा, इस भय से
युद्धशास्त्र, छुरी-तलवार आदि पकड़ने का शास्त्र (य) और (विविहाओ जोगजु जणाओ ) अनेक प्रकार के योगवशीकरणादि तंत्रप्रयोग, (सिक्खए ) सीखते हैं । ( अन्नसु एवमादिसु बहुसु कारणसएसु जावज्जीवं नडिज्जए) और भी इस प्रकार के बहुत से परिग्रह को ग्रहण करने के सैकड़ों उपायों में, प्रपंचों में या खटपटों में आजीवन प्रवृत्ति करते हैं और बिडम्बना पाते हैं । (य) और ( मंदबुद्धी) मन्द बुद्धि वाले अज्ञानी जीव ( संचिणंति) बहुत चीजों को इकट्ठा करते हैं । (य) तथा ( परिग्गहस्सेव अट्ठाए) परिग्रह के लिए ही, ( कति पाणाण वहकरणं) जीवों की हत्या - हिंसा करते हैं । ( अनि डसाइपओगे) झूठ - मृषाभाषण, अत्यन्त आदरपूर्वक वंचना - निकृति, असली वस्तु में रद्दी वस्तु मिला कर उत्तमवस्तु की भ्रान्ति साति उत्पन्न करने के प्रयोगों को, (परदव्व अभिज्जा) पराये द्रव्य को ग्रहण करने की इच्छा, ( सपरदारअभिगमण सेवणाए आयासविसरणं) अपनी स्त्री या परस्त्री के साथ गमन करने तथा पुत्रादि के उत्पन्न होने से खर्च अपनी स्त्री और परस्त्री के सेवन से भी दूर रहते विवाद - झगड़ा, शरीर से लड़ाई विमाणणाओ ) अपमान तथा यातनाएँ – पीड़ाएँ ( करेंति ) करते हैं । (इच्छा महिच्छप्पिवाससतततिसिया) चक्रवर्ती आदि की तरह अभिलाषाओं और महेच्छा -- बड़ी-बड़ी इच्छाओं रूपी पिपासा से निरन्तर प्यासे ( तरह गेहिलो भघत्था ) अप्राप्त द्रव्य की प्राप्ति की तृष्णा - लालसा एवं प्राप्त के प्रति आसक्ति या आकांक्षा और लोभ में ग्रस्त, (अत्ताणा) रक्षाविहीन (अणिमाहिया ) इन्द्रियों और मन के निग्रह - संयम से रहित होकर ( कोहमाणमायालोभ करेंति) क्रोध, मान, माया और लोभ करते हैं । (अकित्तणिज्जे) निन्दनीय (च) तथा ( परिग्गहे) परिग्रह में (एव) ही ( नियमा) नियम से ( सल्ला) मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यादर्शन - शल्य होते हैं, (दंडा) इसी में ही शारीरिक मानसिक वाचिक तीनों प्रकार के दण्ड - अपराध होते हैं, ( गारवा ) ऋद्धि, रस, और साता का अभिमान, (य) और ( कसाया ) क्रोध मान, माया और लोभरूप कषाय (य) तथा ( सन्ना) आहार, भय, मैथुन और परिग्रह
हैं । ( कलह भंडवेराणि ) तथा वैरविरोध करते हैं ।
४ संज्ञाएँ, ( कामगुणअण्हगा) शब्दादि इन्द्रियविषयों तथा हिंसादि ५ आश्रवद्वारों, (य) एव ( इंदियलेसाओ ) इन्द्रियविकार और कृष्ण, नीत, कापोत ये तीन अप्रशस्त श्याएँ ( होंति) होती हैं । ( सयणसंपओगा) अपने कुटुम्बीजनों के साथ किनाराकसी - अलगाव करते हैं । ( सचित्ताचित्तमी सगाई अणंतकाइ दव्वाइं
परिघेत्तु ं इच्छंति)
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और वे अनन्त असीम द्रव्यों को, चाहे वे सचित्त हों, अचित्त हों या मिश्र, ममत्वपूर्वक
कलह मुंह से ( अवमाणण