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पंचम अध्ययन : परिग्रह-आश्रव
४८१ संचिणंति ।' तक पाठ में परिग्रहसेवनकर्ताओं की सूची देदी है। यों देखा जाय तो सारा संसार ही प्रायः एक या दूसरी तरह से परिग्रहसेवनकर्ता है । परन्तु शास्त्रकार ने महापरिग्रहियों के ही खासतौर से नाम गिनाये हैं, और अन्त में 'एए अन्ने य एवमाती परिग्गहं संचिणंति' (ये और इनके अतिरिक्त दूसरे इसी प्रकार के लोग परिग्रह का संचय करते हैं) कह कर अन्य लोगों का भी समावेश कर लिया है।
परिग्रहसेवनकर्ताओं की सूची में सर्वप्रथम शास्त्रकार ने भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों को गिनाया है। उसके बाद वर्षधर, इपुकार, वृत्त-पर्वत, कुडलाचल, रुचकाचल, मानुषोत्तरपर्वत, कालोदधि, लवणसमुद्र, गंगादि महानदियों, पद्म-महापद्म नामक प्रधान द्रहों,रतिकरपर्वतों, अंजनशैलों, दधिमुखपर्वतों, कंचनकपर्वत, चित्रविचित्रकूटपर्वतों, यमकपर्वतों, गोस्तूपादिपर्वतों पर रहने वाले परिग्रही देवों का उल्लेख किया है। तदनन्तर कहा है कि अकर्मभूमियों तथा व्यवस्थित कर्मभूमियों में रहने वाले जो भी मनुष्य हैं, चाहे वे यौगलिक हों या बड़े से बड़े विशाल साम्राज्य के धनी चक्रवर्ती हों, वासुदेव हों, बलदेव हों, मांडलिक हों, युवराज आदि हों, अथवा भौगिक हों, जागीरदार हों, मांडलिक हों, सेनापति हों, इभ्य सेठ हों, धनाढ्य हों, राष्ट्रहितैषी हों, पुरोहित हों, राजकुमार हों, दंडनायक हों, गणनायक हों, माडंबिक हों, सार्थवाह हों, कौटुम्बिक हों या अमात्य हों, सबके सब कम या ज्यादा परिग्रह का सेवन करने में संलग्न रहते हैं।
देवों के पास अधिक परिग्रह क्यों ?-शास्त्रकार ने देवों के परिग्रहों का सर्वप्रथम वर्णन किया है और उनके पास अत्यधिकमात्रा में परिग्रह होने का उल्लेख किया है, प्रश्न होता है कि देवों के पास सबसे ज्यादा परिग्रह होने का क्या कारण है ?
___इसी के उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं-........"परिग्गहरुती परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवनिकाया .. .. विमाणवासी महिड्ढिका' अर्थात् देवों की परिग्रह में अत्यधिक रुचि होती है, परिग्रह को बढ़ाने और विविध उपायों से परिग्रह का संचय करने में उनकी बुद्धि व्यस्त रहती है। और विमानवासी देव तो पूर्वकृतपुण्य की प्रबलता के कारण महान् ऋद्धि-सम्पदा वाले होते ही हैं। वास्तव में देखा जाय तो जिसे अधिक परिग्रह-सामग्री मिलती है, वह ममतावश और अधिक परिग्रह जुटाने के लिए तत्पर रहता है। संसार के समस्त जीवों में देव अत्यधिक पुण्यशाली होते हैं । उन्हें उस पुण्य के फलस्वरूप सुखसामग्री भी उत्कृष्ट और अधिक मिलती है,
और उनकी भी प्रायः यह धारणा बन जाती है कि सुख परिग्रह के बढ़ाने पर ही निर्भर है । जिसमें भवनवासी और विमानवासी इन दो प्रकार के देवों का प्रथम