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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
जिसके हृदय में जितने अंश में सत्य रहता है ; वह न्यायाधीश उतने ही अंशों में न्याय पर आरूढ़ रहता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि न्याय का पिता और माता सत्य ही है । सत्यं की भूमि पर ही न्याय का वृक्ष पैदा होता है, फलता-फूलता है। असत्य की जरा-सी आंच भी उसे भस्म कर देती है। इसलिए सत्य को न्याययुक्त कहना ठीक है।
अडिलं-सरलचित्त व्यक्ति के हृदय में सत्य का निवास होता है। टेढी म्यान में जैसे सीधी तलवार प्रवेश नहीं कर सकती, वैसे ही कुटिल हृदय में सत्य नहीं ठहर सकता। कुटिलता और सत्यता का परस्पर विरोध है। कुटिल या मायाचारी व्यक्ति सत्य से दूर रहता है । इसलिए सत्य को अकुटिल कहा है।
अणुत्तरं- सत्य सब गुणों में श्रेष्ठ है। सत्य अनेक गुणों का आधार है। अहिंसा, अचौर्य आदि भी सत्य पर निर्भर हैं। सत्य संसार में शान्ति का साम्राज्य स्थापित करता है.। सत्यगुण से भ्रष्ट व्यक्ति सभी गुणों से भ्रष्ट माना जाता है । तप, त्याग, प्रत्याख्यान, नियम, संयम आदि सब साधनाएँ सत्य पर ही प्रतिष्ठित हैं। इसलिए सत्य को सर्वोत्कृष्ट गुण कहा है।
सव्वदुक्खपावाणं विउसमणं-सत्य ऐसी अग्नि है, जिसमें सभी पाप और दुःख स्वाहा हो जाते हैं। जिस आत्मा में सत्य की ज्योति एवं ज्वाला जग उठती है,वह अपने पिछले पापों का भी प्रायश्चित्त और तप के द्वारा क्षय कर देता है, नये पाप उसके जीवन में रुक जाते हैं । जब पाप नहीं होंगे तो दु:ख कहां से होंगे ? 'दु:खं हयं जस्स न होइ मोहो'- इस सूत्रवाक्य के अनुसार जिसके मोह नहीं होता, उसका दुःख नष्ट हो जाता है । सत्यार्थी साधक मोह के मल को साफ कर डालता है,सम्यक्त्व की गंगा में वह स्नान करता है,तब मोह उसे कहां रहेगा ? जब आदमी सचाई समझ लेता है तो उसे मानसिक और कायिक क्लेश होते ही नहीं । पूर्वकर्मवश कायिक क्लेश आते भी हैं तो वह प्रसन्नता से उन्हें सह लेता है। इसलिए सत्य समस्त दुःखों और पापों को शान्त करने वाला है।
पांच भावनाएँ और उनका उद्देश्य-पहले कहा जा चुका है कि सत्य की सुरक्षा के लिए भगवान् ने अलीक आदि से बचने का निर्देश किया है। परन्तु सत्य की सुरक्षा के संस्कार जब तक साधक के मन में दृढीभूत नहीं हो जायेंगे, तब तक वह किसी भी निमित्त के मिलते ही सत्य से डांवाडोल हो उठेगा । इसीलिए साधक को दृढ़संस्कारों से ओतप्रोत करने हेतु शास्त्रकार ने मिथ्यावचन से विरतिरूप सत्य महाव्रत की रक्षा के लिए पाँच भावनाएं बताई हैं । वे इस प्रकार है-(१) अनुचिन्त्यसमितिभावना, (२) क्रोधनिग्रहरूप क्षमाभावना, (३) लोभविजयरूप निर्लोभता