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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र पड़े हुए किसी द्रव्य का तथा जंगल में रहे हुए फूल, फल, छाल, कोमल पत्त, कंद, मूल, तिनका, लकड़ी तथा कंकर-पत्थर आदि किसी भी वस्तु का चाहे वह थोड़ी हो या ज्यादा, छोटी हो या बड़ी, किसी भी स्थान पर हो बिना दिये या उसके स्वामी की आज्ञा लिये बिना ग्रहण करना सर्वथा निषिद्ध है।
अचौर्य महाव्रती साधु को उपाश्रय-धर्मस्थान में रही हुई वस्तु का ग्रहण या उपयोग भी वहां के स्वामी या अधिकारी की प्रतिदिन आज्ञा लिए बिना नहीं करना चाहिए। साधुओं के प्रति अप्रीति रखने वाले घर में कदापि प्रवेश नहीं करना चाहिए। अप्रीति रखने वाले के यहां से आहार-पानी या अप्रीतिकारी की चौकी, पट्टा, शय्या-उपाश्रय या धर्मस्थान, तृणादि का बिछौना, वस्त्र, पात्र, कंबल, दंड, रजोहरण, आसन, चोलपट्टा, मुखवस्त्रिका, पैर पोंछने का कपड़ा आदि भाजन-भांड-उपधिरूप धर्मोपकरणसामग्री लेना भी योग्य नहीं है । जो साधु दूसरों की निन्दा करता है या दूसरों के सामने मिथ्या डींगें हांकता है, दूसरे के दोष देखता है या दोषों की चर्चा करता रहता है, आचार्य, चिररोगी, वृद्ध आदि दूसरे साधुओं के बहाने से या दूसरे साधुओं की ओट में जो साधु मनोज्ञ वस्तु खूद ले लेता है, या परस्पर सम्बन्ध का नाश करा देता है, कोई सुकृत दूसरे ने किया है, उसका अपलाप करके जो साधु उसे नष्ट करा देता है, दान देने में अन्तराय डालता है तथा दान का अपलाप करके या उसका निषेध करके उसका लोप करता है, दूसरे की चुगली खाता है, डाह से जलता रहता है और जो चौकी, पट्टा, शय्या, बिछौना, वस्त्र, पात्र, कंबल, मुखवस्त्रिका, पादपोंछन आदि धर्मोपकरण सामग्री का साधुओं को यथोचित विभाजन नहीं करता है, जो गच्छ के लिए उपकारक के रूप में प्राप्त वस्तुओं का संग्रह करने में कुशल नहीं है, जो तपस्या का चोर है, वचन का चोर है, रूप का चोर है तथा आचार का चोर है और भाव का चोर है, जो रात को जोर-जोर से चिल्लाता है अथवा गृहस्थों की-सी भाषा बोलता है, संघ या व्यक्तियों में आपस में फट डाल देता है, कलह करता है, वैर-विरोध करता है या वैर पैदा करने वाला उपदेश देता है, जो स्त्री आदि की चटपटी कामोत्तेजक विकथाएं करता है, चित्त में असमाधि-उद्वं ग पैदा करता है या