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आठवां अध्ययन : अचौर्य-संवर
संग्रह करने में तथा भोजन-अध्ययन आदि अवलम्बनों से उनका उपकार करने में कुशल (तारिसए) इसी प्रकार का (से) वह योग्य साधक (इणं वयं) इस व्रत का (आराहते) आराधन-सेवन कर सकता है ।
मूलार्थ--श्री गणधर सुधर्मास्वामी अपने प्रधान शिष्य श्री जम्बू स्वामी को सम्बोधित करते हुए कहते हैं-'हे उत्तमव्रत के धारक जम्बू ! तीसरा दत्तानुज्ञात नामक संवरद्वार है। यह महाव्रतरूप है, अनेक गुणों का कारणभूत व्रत है, दूसरों के द्रव्य-पदार्थ का हरण - बिना दिये ग्रहण करने उड़ा लेने के त्यागरूप क्रिया से युक्त है, असीम तथा अनन्त तृष्णा के पीछे-पीछे चलने वाली मन की बड़ी-बड़ी इच्छाओं से कलुषित-दूषित मन और वचन से दूसरों की चीज को बुरे इरादे से ग्रहण करने का इससे भलीभांति निग्रह-नियंत्रण हो जाता है । इस संवर द्वारा मन को भलीभांति काबू मेंअंकुश में किए जाने से हाथ-पैर परधनहरण करने, हड़पने आदि अकार्यों से रुक कर निश्चल हो जाते हैं। यह संवर धनादि बाह्य परिग्रह एवं ममत्त्व . कषाय आदि अन्तरंग परिग्रह की गांठ से रहित है। यह समस्त धर्मों की पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ है अथवा अहिंसादि सब धर्मों में निष्ठा जमाने वाला है, सर्वज्ञदेव ने उपादेयरूप से इसका निरूपण किया है। यह आते हुए कर्मों को रोकने वाला है, राजादि का भय इसमें नहीं होता, यह लोभदोष से मुक्त है। सर्वोत्तम मनुष्यों, अत्यन्त बलशाली पुरुषों एवं शास्त्रोक्त विधिपूर्वक आचरण करने वाले साधुओं द्वारा यह सम्मत है, या सम्मानित है, उत्कृष्ट मुनिजनों का यह धर्माचरण है।
इस (अचौर्य संवरव्रत) में गांव, खान, शहर, व्यापारी मंडी, धूल के कोटवाली बस्तो, कस्बे, चारों ओर ढाई-ढाई कोस तक बस्ती से शून्य नगर या गांव, बंदरगाह, दुर्ग, महानगर (पट्टन) और आश्रम में पड़ी हुई मणि, मोती, शिला, मंगा, कांसा, वस्त्र, चांदी, सोना और रत्न आदि कोई वस्तु गिरी हुई, भूली हुई या खोई गई हो, उसे किसी असंयमी को बताना या बिना दी हुई वस्तू ग्रहण करना चोरी है, इस लिहाज से उसे स्वयं उठा लेना साधु के तृतीय महाव्रत की दृष्टि से उचित नहीं है। संयमी साधु के पास सोना-चांदी नहीं होता है, इसलिए वह पत्थर और सोने को समान समझते हुए तथा अपरिग्रही होने से अपनी इन्द्रियों को नियंत्रण में रखते हुए लोक में विचरण करे। संयमी के लिए खलिहान में पड़े हुए, खेत में