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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
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कहाँ से किस-किस रूप में आ सकता है ? उससे कैसे बचना चाहिए ? कदाचित् पूर्वसंस्कारवश आने लगे तो उसे कैसे दूर भगाना चाहिए ? सत्यसंवर को रखने का उद्देश्य क्या है ? सत्य का रहस्य क्या है ? मगर इस प्रकार का सूक्ष्मविश्लेषण प्रत्येक साधु कर नहीं सकता । इसलिए शास्त्रकार इस भावना पर चिन्तन से पहले पूर्व तैयारी के रूप में निर्देश करते हैं- 'सोऊण संवरठ्ठे परम सुद्धं जाणिऊण....' इसका आशय यह है कि सत्यार्थी साधक को सर्वप्रथम सद्गुरु के मुख से आगम के माध्यम से यह भलीभांति श्रवण करना चाहिए कि सत्यसंवर का पालन भगवान् ने क्यों और किसलिए आवश्यक बताया है ? इसका वास्तविक प्रयोजन क्या है ? साधक- जीवन के साथ इसका क्या सम्बन्ध है ? आदि । उसके पश्चात् यदि जैन सिद्धान्तों के रहस्य को ग्रहण करने की प्रतिभा हो जो ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है, तो उसके बल पर उसे स्वयं सत्यसिद्धान्तप्रतिपादक शास्त्रों और ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए और उसके द्वारा विविध पहलुओं से सत्य को जानना चाहिए; विभिन्न तर्कवितर्कों द्वारा उसके रहस्य को हृदयंगम कर लेना चाहिए ।
उसके पश्चात् उसे सत्य महाव्रत की प्रथम भावना का चिन्तन-मनन और तदनुमार उसी का रटन करना चाहिए, ताकि वह उसके संस्कारों में जम जाय और उसकी समग्र प्रवृत्ति सत्यमय हो जाय। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं 'न वेगियं, न तुरियं संजतेण कालम्मि य वत्तव्वं ।' इसका आशय यह है कि संयमी साधक बोलने से पहले अपने हृदय में इस बात को दृढ़ कर ले कि 'मुझे हड़बड़ा कर व्यग्रता से कभी नहीं बोलना है, उतावली में जल्दी-जल्दी भी नहीं बोलना है, न चंचलता से बोलना है, न कड़वा बोलना है, न कठोर बोलना है, न सहसा किसी पर दोषारोपण करना है, न परपीड़ाकारी सावद्यवचन बोलना है। मुझे जब भी बोलना है, तब सत्य हित, मित, शुद्ध, ग्रहणीय, संगत, स्पष्ट और सोच-विचार कर बोलना है ।'
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सत्यार्थी साधक यदि मन की व्याकुल और व्यग्र अवस्था में बोलेगा तो, उससे वह अपनी अभीष्ट बात को व्यक्त करने में असफल होगा । चित्त में जब एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा, इस प्रकार लगातार अनेक विकल्प उठते रहते हैं, तब मनुष्य अपने सिद्धान्त को स्थिर नहीं कर पाता । उस समय वह झुंझला कर, हड़बड़ा कर या व्यग्रतापूर्वक जो कुछ भी कहेगा, उससे सुनने वाले को विपरीत अर्थ का भान होना संभव है । इसलिए सत्य के पुजारी को मन की व्याकुल अवस्था में वेग से कोई वचन व्यक्त नहीं करना चाहिए । उसे अपने मन को विकल्पजालों से मुक्त कर, अव्याकुल स्थिति में ही अपनी बात प्रगट करनी चाहिए ।
कई लोगों को यह आदत होती है कि वे बहुत जल्दी-जल्दी बोलते हैं । जल्दी में बोलते समय अपने वचनों पर काबू नहीं रहता । वे अपने सिद्धान्त से विपरीत बातें