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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
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वस्त्रादि जीवन चलाने योग्य चीजों की प्राप्ति का भय साधक के मन को कुरेदता है। साधक इस भय की कल्पना के कारण सिहर उठता है । जरा-सी शारीरिक पीड़ा या बीमारी होते ही इस भय के मारे अधीर हो जाता है । अपकीर्ति का भय तो साधक की नस-नस में घुस जाता है। कोई क्रिया-काण्ड चाहे निष्प्राण ही हो गया हो, संयम का पोषक न रहा हो, विकासघातक एवं युगबाह्य हो गया हो, केवल दम्भवर्द्धक रह गया हो, लेकिन समाज में अपकीर्ति हो जाने के डर से उसे बदलने या उसमें संशोधन करने से वह हिचकिचाता है । अपयश के डर के मारे साधु सत्य को ठुकराते संकोच नहीं करता। मृत्यु का भय तो क्या श्रावक, क्या साधु सबके पीछे लगा हुआ है । वह मृत्यु की कल्पना से ही कांप उठता है। मृत्यु की छाया पड़ते ही भयभीत हो उठता है। और मौत का खतरा उपस्थित होने पर सत्य को छोड़ कर असत्य को भी सलाम कर लेता है। इसीलिए शास्त्रकार सत्य की सुरक्षा के लिए साधकों से स्पष्ट निर्देश करते हैं—'न भाइयव्वं । भीतो "भयस्स वा "एवं
ज्जेण भाविओ भवति अंतरप्पा ...... सूरो सच्चज्जवसंपन्नो।' इसका आशय यह है कि सत्यार्थी साधक को किसी भी प्रकार के भय से विचलित नहीं होना चाहिए। भय तो उसको लगता है, जिसके जीवन में कुछ दुर्बलताएँ हों, किसी वस्तु का ममत्व और मोह घेरा डाले बैठे हों ; किसी का कर्ज चुकाना हो, या किसी से किसी वस्तु को पाने की आशा या लालसा हो। जब साधक इन सब बातों से परे है तो उसे भय किस बात का ? साथ ही भय आत्मा को तभी तक ज्यादा सताता है, जब तक उसे स्वपर का भेदविज्ञान नहीं हो जाता, स्वपर के स्वरूप को हृदयंगम नहीं कर लेता। जब साधक के दिल में यह बात जम जाती है कि मैं अपने आप में आत्मा हूं, शरीर नहीं ; शरीर मेरा स्वरूप नहीं है। वह प्रतिक्षण विनाशशील और अनित्य है, जब कि आत्मा अविनाशी है, नित्य है। अग्नि शरीर को ही जला सकती है, आत्मा को नहीं ; पानी शरीर को ही गला सकता है, आत्मा को नहीं ; शस्त्र शरीर को ही काट सकते हैं, आत्मा को नहीं ; हवा शरीर को ही सूखा सकती है, आत्मा को नहीं ; भूत-प्रेतादि की बाधा इस शरीर को ही हो सकती है, आत्मा तक उनकी पहुँच नहीं है ; रोग-व्याधियाँ शरीर को ही हानि पहुंचा सकती हैं, आत्मा को नहीं ; बुढ़ापा शरीर को ही जीर्ण-शीर्ण कर सकता है, आत्मा को नहीं ; आहार-पानी आदि पुद्गलों की अप्राप्ति शरीर को ही कमजोर कर सकती है, आत्मा को नहीं। मौत शरीर का वियोग कर सकती है, आत्मा का नहीं। मेरी आत्मा तो स्वयं मेरे पास ही है। फिर मुझे डर किस बात