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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र सुबन्त-तिगन्त विभक्त यन्त पद, हेतु, यौगिकपद, उणादि प्रत्ययान्त पद, सिद्ध क्रिया बताने वाले पद, भू आदि धातु, अकारादि स्वर या षड्ज आदि संगीतस्वर अथवा ह्रस्व-दीर्घ-प्लुतरूप मात्रोच्चारणकालसूचक स्वर अथवा कहीं स्वर के बदले 'रस' शब्द मिलता है, वहां अर्थ होगा-शृगार आदि नौरस, प्रथमा आदि विभक्ति, स्वरव्यंजनात्मक वर्ण, इन सबसे युक्त हो वह सत्य है। ऐसा त्रिकालविषयक सत्य दस प्रकार का होता है। वह सत्य जैसे मुंह से कहा जाता है, वैसे ही कर्म- लेखन, हाथ-पैर, आँख आदि की चेष्टा, इंगित, आकृति आदि क्रिया से भी होता है अथवा जैसा बोला है, वैसा ही करके बताने से यानी कथन के अनुसार अमल करने से ही सत्य होता है। संस्कृत प्राकृत आदि भेद से बारह प्रकार की भाषा होती है तथा एकवचन द्विवचन आदि भेद से सोलह प्रकार का वचन होता है । इन नाम आदि से संगत वचन ही बोलने योग्य होता है । वही सत्य कहलाता है ।
इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् द्वारा अनुज्ञात-आदिष्ट तथा भलीभांति सोचा-विचारा हुआ सत्यवचन समय-अवसर आने पर संयमी साधु को बोलना चाहिए।
व्याख्या प्रथम अहिंसा संवरद्वार का वर्णन कर चुकने के पश्चात् शास्त्रकार द्वितीय संवरद्वार का वर्णन करते हैं । इस विस्तृत सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने सत्य की महिमा बताई है उसके पश्चात् सत्यपालन से होने वाले आश्चर्यजनक चमत्कारों का निरूपण किया है। उसके बाद सत्य के दस प्रकार बता कर उस सत्य को जानने वालों, सत्य के द्वारा अपनी विद्या, मंत्र, योग, औषधि आदि सिद्ध करने वालों तथा सत्य की वन्दना अर्चा-पूजा करने वालों का उल्लेख किया है, इसके अनन्तर सत्य की गरिमा बताने के लिए कतिपय उपमाएं दी हैं। उसके बाद यह बताया गया है कि कौन-कौन से वचन सत्य होते हुए भी नहीं बोलने चाहिए ? और सत्य वचन कौन-सा होता है और किस प्रकार से बोला जाना चाहिए? इस विषय पर प्रकाश डाला गया है।
___ यद्यपि इस सूत्रपाठ का अर्थ पदान्वयार्थ एवं मूलार्थ में काफी स्पष्ट है, फिर भी कुछ स्थलों पर व्याख्या करना आवश्यक समझ कर नीचे हम कुछ स्थलों पर व्याख्या प्रस्तुत करते हैं
सत्य का अर्थ-सत्य के अर्थों पर विचार करते समय हमें उसके प्रचलित,