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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
किया है । देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने इसका प्रयोजन समझ लिया है, अथवा इसके द्वारा ही देवेन्द्रों और नरेन्द्रों को जीवादि पदार्थों का सत्य-तत्त्व बताया गया है, अथवा देवेन्द्रों और नरेन्द्रों ने मनुष्यों को इस सत्य का साध्य अर्थ बतलाया है । वैमानिक देवों को भी तीर्थंकर आदि ने उपादेय के रूप में इसे प्रतिपादन किया है, अथवा वैमानिकों ने इसी सत्य की साधना की है-इसका सेवन किया है । यह महाप्रयोजन वाला अथवा गम्भीर अर्थ वाला है। मंत्रों औषधियों और विद्याओं के सिद्ध करने में इसका प्रयोजन- इसका सार्थकत्व रहता है । चारणगणों और श्रमणों की विद्या इसी से सिद्ध होती है,यह मानवगणों का वन्दनीय स्तुत्य है,व्यंतर- ज्योतिष्क आदि देवगणों का यह अर्चनीय है तथा भवनपति आदि असुरगणों का यह पूजनीय है, नाना प्रकार के व्रत या वेश धारण करने वाले साधुओं ने इसे अङ्गीकार किया है। ऐसा वह सत्य लोक में सारभूत है, यानी संसार के समस्त पदार्थों में प्रधान है, क्षोभरहित होने से यह महासमुद्र से भी गंभीरता में बढ़ाचढ़ा है। प्रण पर अटल होने से यह मेरुपर्वत से भी बढ़कर स्थिर है। संताप को शान्त करने में बेजोड़ होने से यह चन्द्रमण्डल से भी अधिक सौम्य है । वस्तु के कण-कण को यथार्थ रूप से प्रकाशित करने वाला होने से यह सूर्य मण्डल से भी बढ़कर प्रकाशमान है अथवा कोई भी तेजस्वी इसका तिरस्कार नहीं कर सकता, इसलिए शूरसमूह से भी यह अधिक तेजस्वी है । निर्दोष होने से यह शरत्कालीन गगनतल से भी अधिक निर्मल है। सहृदय लोगों के हृदय को प्रफुल्लित करने वाला होने से यह गन्धमादन. (चन्दनवृक्षों के वन वाले गजदन्त) पर्वत से भी अधिक सुगन्धित है। संसार में जितने भी हरिणगमेषी-आवाहन आदि मंत्र हैं, वशीकरण आदि मंत्र हैं, वशीकरण आदि प्रयोजनों के लिए योग हैं, मन्त्र तथा विद्या के जप हैं, प्रज्ञप्ति आदि विद्याएं हैं, तिर्यग्लोकवासी जम्भक जाति के देव हैं, फेंक कर चलाए जाने वाले बाण आदि के अस्त्र हैं, सीधे प्रहार किए जाने वाले शस्त्र हैं अथवा अर्थनीति आदि लौकिक शास्त्र हैं, चित्र आदि कलाओं की शिक्षाएँ हैं, सिद्धान्त-आगम-धर्म-शास्त्र हैं, वे सब के सब सत्य से प्रतिष्ठत हैं—अर्थात् ये सब सत्य से ही उपलब्ध या सिद्ध होते हैं।
वस्तु को यथार्थरूप से प्रगट करने वाला वह सत्य भी यदि संयम का का बाधक हो तो उसे जरा-सा भी नहीं कहना चाहिए, जो हिंसा और पाप