________________
६४६
श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र के लिए मिथ्या बोलेगा या फिर इन्द्रियसुखों की प्राप्ति के लिए झूठ बोलेगा। लोभग्रस्त मानव सत्य से डगमगा कर या तो भोजन के लिए असत्य बात कहेगा या पेयपदार्थ के लिए असत्यभाषण करेगा। लोभी साधक सत्यव्रत में अस्थिर हो कर या तो पीठ-चौकी के लिए असत्य बोलेगा, अथवा पट्ट के लिए झूठी बात कहेगा । लोभ के वशीभूत साधक व्रत से चलित हो कर या तो शय्या (शयनस्थान) के लिए के लिए झूठ बोलेगा या फिर संस्तारकबिछौने के लिए झूठ बोलेगा । लुब्ध साधक व्रत से डांवाडोल हो कर या तो वस्त्र के लिए मिथ्या बोलेगा या पात्र-बर्तन के लिए। लोभग्रस्त साधक सत्य से डिग कर या तो कंबल के लिए झूठ बोलने को उद्यत होगा या पैर पौंछने के कपड़े के लिए। लोभी साधक सत्यव्रत से विचलित हो कर या तो शिष्य के लिए झूठी बात कहेगा या शिष्या के लिए । लोभी मानव झूठ बोलता ही है । और भी इस प्रकार के अनेकों सैकड़ों कारणों से लोभग्रस्त मानव सत्यव्रत से डांवाडोल हो कर झूठ बोलता है। इसलिए लोभ का हर्गिज सेवन नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार लोभसंयमरूप निर्लोभता की भावना से भावित अन्तरात्मा अपने हाथ, पैर, आँख और मुंह पर संयमशील बन कर धर्मवीर तथा सत्यता और सरलता से सम्पन्न हो जाता है ।
चौथी भयमुक्ति-धैर्यप्रवृत्तिरूप भावना है। वह इस प्रकार हैभय नहीं करना चाहिए। भयभीत मनुष्य पर अनेकों भय आ कर झटपट हमला कर देते हैं । डरपोक आदमी सदा अद्वितीय-असहाय (अकेला) होता है। भयभीत मनुष्य ही भूत-प्रेतों ग्रस्त होते हैं। डरने वाला अवश्य ही दूसरे को डराता है, भय में डालता है। भयभीत साधक तप और संयम अथवा तपस्याप्रधान संयम को भी तिलांजलि दे देता है। भयभीत मनुष्य किसी महत्त्वपूर्ण कार्य के दायित्व को निभा नहीं पाता अथवा संयम का भार नहीं निभा सकता। और न ही डरपोक साधक सत्पुरुषों द्वारा आचरित मार्ग पर ही चलने में समर्थ होता है । इसलिए दुष्ट देव, दुष्ट मनुष्य या दुष्ट तिर्यञ्च के निमित्त से पैदा हुए बाह्य भय से एवं आत्मा में उत्पन्न हुए आन्तरिक भय से अथवा किसी प्राणघातक कुष्ट आदि व्याधि से या ज्वर आदि रोग से अथवा बुढ़ापे से या मौत से अथवा इसी प्रकार के इष्टवियोग-अनिष्टसंयोगरूप वगैरह भय के अन्यान्य कारणों से नहीं डरना चाहिए।