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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
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भी मिलता है; वहाँ शृंगार, रौद्र, बीभत्स, वीर, करुणा, हास्य, भयानक, अद्भुत और शान्त, ये साहित्यशास्त्रप्रसिद्ध नौ रस समझने चाहिए।
विभक्ति-प्रथमा, द्वितीया,आदि व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध सात विभक्तियाँहैं,जो कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदाय, अपादान, सम्बन्ध और अधिकरण के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
वर्ण क, ख आदि तैतीस व्यञ्जन तथा अयोगवाह अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय आदि वर्ण कहलाते हैं।
नाम से ले कर वर्ण पर्यन्त यथाप्रसंग विवेकयुक्त वचन सत्यवचन हैं ।
सत्यवचन भी संयमघातक हो तो वह असत्य है-शास्त्रकार ने सत्यवादियों को सावधान करते हुए कहा है कि जो सत्यवचन संयमघातक हो, पीडाजनक हो, भेद- विकथाकारक हो, निरर्थक विवादयुक्त हो,कलह पैदा करने वाला हो, असभ्योंअनार्यों द्वारा वोला जाने वाला अपशब्द हो, अन्यायपोषक हो, अवर्णवाद या विवाद से युक्त हो, दूसरों की विडम्बना करने वाला हो, झूठे जोश और धृष्टता से भरा हो, लज्जाहीन हो, लोकनिन्द्य हो, अथवा जो बात खूब अच्छी तरह देखी, सुनी या जानी हुई न हो, जिस वचन में अपनी प्रशंसा और दूसरों की निंदा की झलक हो; ऐसे वचन सच्चे होते हुए भी दुष्ट आशय---खोटे इरादे से कहे जाने के कारण संयम घातक होने से असत्य में ही शुमार हैं । ऐसे वचनों का जरा-भी प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
इस प्रकार शास्त्रकार ने सत्य का विविध पहलुओं से माहात्म्य और स्वरूप समझाया है और सत्य के आराधक को सावधानीपूर्वक उसका आचरण करने का निर्देश किया है।
सत्यव्रत को पाँच भावनाएं जब साधक के सामने सत्य संवर का महावत के रूप में पालन करने का सवाल आता है तो उसके मन में सतत दृढ़ता, उत्साह, तीव्रता, स्फूर्ति और श्रद्धा बनी रहे, इसके लिए प्रेरणा देने वाली भावनाएं होनी चाहिए। अतः अहिंसामहाव्रत की तरह सत्यमहाव्रत के लिए भी शास्त्र कार पांच भावनाएँ तथा उनके चिन्तन और प्रयोग का तरीका अब आगे के सूत्रपाठ में बतलाते हैं
मूलपाठ इमं च अलिय-पिसुण-फरुस- डुय-चवलवयणपरिरक्खणट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं, अत्तहियं, पेच्चाभाविकं,
आगमेसिभद्द, सुद्ध, नेयाउयं, अकुडिलं. अणुत्तरं, सव्वदुक्खपावाणं विओसम णं । तस्स इमा पंच भावणाओ बितियस्स वयस्स