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सातवाँ अध्ययन : सत्य-संवर
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माने में सत्य होता है ।' यही कारण है कि सत्य महाव्रती साधु मन, वचन, काया तीनों योगों से सत्य का आचरण करने की प्रतिज्ञा लेता है । वह वचन से तो ठीक कहता हो, पर मन में कुछ और बात हो, शरीर से आचरण और ही तरह का हो, वहाँ दम्भ, छल या असत्य है; सत्य नहीं । साधु के गुणों में इसीलिए तीन विशेषण प्रयुक्त किये जाते हैं— 'भावसच्चे, करणच्चे, जोगसच्चे' - यानी वह भावों से भी सत्य का आराधक हो, कृतादिकरण से भी और मन-वचन-काय की प्रवृत्तिरूप योग से भी सत्याचरणी हो । अगर ऐसा न होता तो शास्त्रकार इस सूत्र पाठ में केवल वाणी से प्रगट किये हुए तथ्य को ही 'सत्य' कह देते, सत्य के स्वरूप पर इतना स्पष्ट व विस्तृत निरूपण नहीं करते । किन्तु उन्होंने पूर्वोक्त तीनों अर्थों में तथा मन-वचन-काय की एकरूपता के रूप में घटित होने वाले सत्य को ही सत्य कहा है और उसी को बोल कर प्रगट करने का निर्देश किया है ।
यद्यपि सत्य का प्रकटीकरण खासतौर से वाणी से ही होता है, बोल कर ही होता है । बोल कर ही मनुष्य अपनी बात या अपने भावों को प्रगट करता है । परन्तु यह नहीं भूल जाना चाहिए कि वाणी तो भावों को परोसने या प्रगट करने का एक साधन है; पर वही सब कुछ नहीं है । अगर वचन का सत्य ही एकान्तरूप से सत्य समझा जाय ; तब तो अव्यक्त भाषा बोलने वाले द्वीन्द्रिय से ले कर पञ्चेन्द्रिय तक के तिर्यञ्च प्राणी भी महासत्यवादी कहलाएँगे, अथवा एकेन्द्रिय स्थावरजीव; जिनके रसनेन्द्रिय नहीं होती ; वे भी सत्यवादी ही कहलाएंगे। लेकिन शास्त्रकार ने उन्हें सत्याचरणी या सत्यपालक नहीं बताया है । छोटा बच्चा, जो अभी बोलना भी नहीं सीखा है, वह भी सत्यवादी की कोटि में आजाएगा । अथवा कोई मन्दमति मनुष्य आजीवन मौन धारण कर ले, वह भी सत्यवादी की कोटि में माना जाएगा। मगर ये सत्यवादी की कोटि में नहीं माने जाते; क्योंकि इनके भावों में अभी तक समझबूझ - पूर्वक सत्यता नहीं आई है । ओघसंज्ञा से कोई मिथ्यात्वी या अव्रती सत्य बोलता है तो उसका वह वचन भी सत्यव्रताचरणी की कोटि में नहीं माना जाता । सत्य के उच्चारण-- वचन पर जो जोर दिया गया है, उसका भी रहस्य यही है कि
१ स्थानांग सूत्र में बताया है - 'कायुज्जुयए, भासुज्जुयए भावुज्जुयए अविसंवायणाजोगे' काया की सरलता, भाषा की सरलता, भावों की सरलता और मन-वचन कायरूप योग की अविसंवादिता - एकरूपता ही सत्य है ।
२ तत्त्वार्थ सूत्र में यही बात प्रगट की गई है— 'सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् ।'
—संपादक