________________
सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
६२५
मनुष्यों के चरणों में देवता उपस्थित होते हैं। और उन्हें अभीष्ट फल प्रदान करते हैं । कहा भी है
'प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न • भुवि ? गिरं सत्यां लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । सुराः सत्याद् वाक्यान् ददति मुदिताः कामितफलम्,
अतः सत्याद् वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥' अर्थात्---'इस पृथ्वी पर कौन-सा ऐसा मनुष्य है, जिसके हृदय को प्रिय सत्यवचन नहीं हर लेता ? अर्थात् यह सबके चित्त को आकर्षित करने वाला मंत्र है। संसार का प्रत्येक प्राणी पद-पद पर (प्रतिक्षण) इस सत्यवचन की आकांक्षा करता रहता है । देवता भी सत्यवचन से प्रसन्न हो कर अभीष्ट फल प्रदान करते हैं । अतः तीनों लोकों में सत्य से बढ़कर कोई भी व्रत नहीं माना गया है।'
इसी का शास्त्रकार ने मूलपाठ में निरूपण किया है। पच्चक्खं दयिवयं व · करेंति सच्चवयणे रताणं ।'
सत्य की महिमा -- आगे चल कर शास्त्रकार ने सत्य की महिमा पर विशद निरूपण किया है-'वह सत्य भगवान् है।' वास्तव में सत्य में असीम गुणों का समावेश होने से उसे भगवान् की कोटि में माना जा सकता है, देवगण सत्य को भगवान् की तरह अर्चनीय मानते हैं, असुरगुण उसे भगवान् की तरह पूजते हैं, मानवगण उसकी स्तुति करते हैं । भगवान् तीर्थंकर आदि तक सत्य के सर्वागीण आचरण से भगवान् बने हैं । 'भग' शब्द ऐश्वर्य के अतिरिक्त धर्म, यश, श्री, वैराग्य, मोक्ष, आदि अनेक अर्थों में भी प्रयुक्त होता है । इसलिए सत्य परम धर्म है,वैराग्य का कारण है, मोक्ष का साधन है, परम्परा से यश, ऐश्वर्य और श्री का भी दिलाने वाला है। इसलिए इसे भगवान् कहना अनुचित नहीं । महात्मा गाँधीजी ने भी सत्य को भगवान् कहा है । उपनिषदों में बताया है -.
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' अर्थात्- 'सत्य ज्ञानरूप और अनन्त ब्रह्मस्वरूप है।'
इसी प्रकार यह सत्य महासमुद्र से भी बढ़ कर गंभीर है। समुद्र में अथाह जल होता है । उसकी थाह पाना दुष्कर होता है। तथापि देव चाहें तो, समुद्र की थाह पा सकते हैं ; किन्तु सत्य की असीम शक्ति की थाह पाना उनके भी वश की बात नहीं । केवलज्ञानी के सिवाय और कोई भी व्यक्ति सत्य का पूर्ण स्वरूप स्पष्ट नहीं जान सकता।
४०