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सातवां अध्ययन : सत्य-संवर
६१७ प्रयोग को ध्यान में रखना होगा। इस दृष्टि से देखने पर 'सत्य' मुख्यतया तीन अर्थों में व्यवहृत होता है-(१) तत्त्व अर्थ में, (२) तथ्य अर्थ में और (३) वृत्तिप्रवृत्ति-व्यवहार अर्थ में । किसी वस्तु का निष्कर्ष, निचोड़, सारांश या तत्त्व पा लेना भी सत्य कहलाता है । जैसे—अग्नि में सत्य उष्णता है,पानी में सत्य शीतलता है,घी में सत्य स्निग्धता है । इसप्रकार वस्तु के असाधारण धर्म को भी सत्य कहा जाता है । स्वयं शास्त्रकार कहते हैं—'जं तं लोग मि सारभूयं' जगत् में जितने भी पदार्थ हैं, उन सब में जो सारभूत वस्तु है, वह सत्य है। इसी प्रकार वर्तमान दार्शनिक भाषा में कहा जाता है—इसने सत्य पा लिया। इससे यही अर्थ सूचित होता है कि अमुक व्यक्ति ने वस्तु तत्त्व का ज्ञान कर लिया, रहस्य पा लिया। जैसे शास्त्रकार ने भी कहा है'चोदत्त्सपुव्वीहिं पाहुडत्यविदितं, महरिसिसमयपइन्नचिन्नं देविंदरिंदभासियत्थं ।' आशय यह है कि चतुर्दशपूर्वधारियों ने प्राभृतों के द्वारा सत्य का अर्थ- रहस्य पा लिया है, महर्षियों ने सत्य (सिद्धान्त) को जान लिया है और आचरण किया है,देवेन्द्रों को सत्य का प्रयोजन प्रतिभासित हो गया अथवा जीवादि ६ तत्वों का अर्थ सत्य रूप में प्रतिभासित होने लगा है। इससे यह भी फलित होता है कि जीवादि तत्वों का ज्ञान प्राप्त कर लेना भी सत्य-सम्यक्त्व पा लेना है। इसीलिए किसी ने लक्षण किया है'कालत्रये तिष्ठतीति सत् तदेव सत्यम्' तीनों कालों में जो रहता है, वह सत् है, वही सत्य है । यही बात शास्त्रकार ने आगे चल कर कही है - "पभासकं भवति सव्वभावाण जीवलोके ।' अर्थात् सत्य जीवलोक में सभी पदार्थों के वस्तुतत्त्व का कथन कर देता है--प्रतिभासित कर देता है।
सत्य जहाँ तथ्य अर्थ में प्रयुक्त होता है, वहाँ यथार्थ बोलने के रूप में होता है। जो वस्तु जैसी देखी है. सुनी है, सोची है, समझी है, जैसा उसके बारे में अनुमान किया है, प्राणियों के हित के अनुरूप वैसा ही वचन द्वारा प्रगट करना सत्य है।
___ इसके लिए शास्त्रकार ने कुछ शब्द दिये हैं- 'भूयत्थं अत्थतो अविसंवादि जहत्थमधुरं' अर्थात् वह सत्य है,जो अर्थ से भूतार्थ—सद्भूत अर्थ वाला हो और अवि संवादी हो,यथार्थ हो,मधुर हो । इसके साथ ही उस सत्य-यथातथ्य अर्थ को प्रगट करने पर भी जिसके पीछे दुष्ट आशय हो,जो प्राणिघात का कारण हो या जिसके पीछे अन्य
१. सत्य का यही लक्षण योगदर्शन व्यासभाष्य में किया है – 'सत्यं, यथार्थ, वाङ
मनसी यथादृष्टं यथाश्रु तं तथैव परत्र क्रान्तये भवति ।
-सम्पादक