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सातवां अध्ययन : सत्य- संवर
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होती है । महाभारत में कहा गया हैं- " निर्विकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत !” "हे अर्जुन ! ब्राह्मण आदि सभी वर्णों में सत्य को अतिशय निर्विकारी माना गया है ।" सत्य की पैरवी के लिए किसी वकील की जरूरत नहीं होती । इसलिए इसे 'सुद्ध' कहा है । सत्य की अभिव्यक्ति भी शुद्ध-सरल मन, शुद्ध-सरल वचन, और शुद्ध - सरलकर्म से होती है । इसी प्रकार इसे 'सुचियं' भी कहा है। शुचि का अर्थ होता है - पवित्र । सत्य में किसी प्रकार की गंदगी, मन की मलिनता, कुटिलता आदि दोषों की गुंजाइश नहीं है । वह स्वयं पवित्र होता है । पवित्र आत्मा ही इसका आचरण करता है ।
सुभासियं - सत्य का उच्चारण स्पष्ट और सुन्दर होता है, इससे इसे सुभाषित कहा है । वास्तव में सत्य कहने वाले का उच्चारण अस्पष्ट नहीं होता । अस्पष्ट उच्चारण तो उस व्यक्ति का होता है, जो किसी न किसी दोष से युक्त होता है, वह कहने से हिचकिचाता है । मगर सत्यवादी बेखटके साफ-साफ और प्रिय व सुन्दर - सुहावने शब्दों में अपनी बात को कहता है ।
सुव्वयं - सुव्रत का मतलब है - उत्तम व्रत । सत्य अपने आप में एक व्रत है— प्रतिज्ञारूप है । व्रत तप को भी कहते हैं, नियम को भी । कहा भी है- 'सत्य' चेत्तपसा च किम् ?' यदि किसी के पास सत्य है तो उसे तपस्या से क्या मतलब है ? सत्य
अपने आपमें एक महान् तप है । किसी कवि ने कहा है
'सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप । जाके हिरदे सांच है, ताके हिरदे आप ॥'
मतलब यह कि जहाँ सत्य नहीं, वहां तप, नियम, व्रत आदि सब निष्फल हो
जाते हैं । नियम या प्रतिज्ञा भी सत्य के ही अंग हैं ।
सुकहिये - राग और द्वेष दोनों से रहित जो न्याययुक्त उचित संतुलित कथन होता है, उसे कथित कहते हैं । सत्य भी ऐसा होने से सुकथित है ।
सुट्ठि सुपतिट्ठियं - जो बात अच्छी तरह से सोच विचार कर कही हुई अच्छी तरह देखी-सुनी हुई होती है या दिलदिमाग में भलीभांति जमी हुई होती है, वही सुकथित, सुदृष्ट एवं सुप्रतिष्ठित होती है, वही सत्य है । बिना बिचारे सहसा किसी
लिए कही गई बात झूठ होती है । कई बार आँखों से स्पष्ट देखी हुई बात भी सही नहीं होती, जैसे धुंधले प्रकाश में रस्सी भी सांप जैसी दिखती है, रेगिस्तान में रेतीली जमीन में पानी भरा हुआ दिखाई देता है, इसी प्रकार कई बार ऊपर-ऊपर से देखी हुई बात में भी सत्य का अंश कम होता है । इसी प्रकार कानों से सुनी हुई बात भी झूठी निकल जाती है । उस पर सहसा विश्वास या निर्णय करने से धोखा खाना पड़ता है । इसी प्रकार कोई बात दिलदिमाग में जब तक भलीभांति जमी नहीं है, तब तक उसे एकदम सही मान लेने से भी पछताना पड़ता है । इसलिए शास्त्रकार इन तीन