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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्रे
संस्कृतच्छाया
परलोके च नष्टास्तमः प्रविष्टा महामोहमोहितमतयस्तमित्रान्धकारे त्रसस्थावर सूक्ष्मबादरेषु पर्याप्ताऽपर्याप्तक एवं यावत् पर्यटन्ति दीर्घमध्वानं जीवा लोभवशसंनिविष्टा । एष स परिग्रहस्य फलविपाक इहलौकिकः पारलौकिकोऽल्पसुखो बहुदुःखो महाभयो बहुरजः प्रगाढो दारुणः कर्क - शोऽसातो वर्षसहस्रं मुच्यते, नावेदयित्वाऽस्ति खलु मोक्ष, इत्येवमाख्यातवान् ज्ञातकुलनंदनो महात्मा जिनस्तु वीरवर नामधेयोऽकथयत् च परिग्रहस्य फलविपाकम् । एष स परिग्रहः पंचमस्तु नियमान्नानामणिकनकरत्नमहार्ध्य एवं यावद् मोक्षवरमुक्तिमार्गस्य परिघभूतश्चरिममधर्मद्वारं समाप्तम् ॥ सू० २०॥
पदार्थान्वय - परिग्रह में आसक्त जीव (परलोगम्मि) परलोक में (च) और इस लोक में, (नट्ठा) सुगति से नष्ट एवं सन्मार्गभ्रष्ट हुए (तमं पंविट्ठा) अज्ञानान्धकार में मग्न, (तिमिसंधकारे) अंधेरी रात के समान घोर अज्ञानान्धकार में (महया मोहमोहितमती) तीव्र उदय वाले मोहनीयकर्म से मोहित बुद्धि वाले (लोभवससंनिविट्ठा) लोभ के वशीभूत ( जीवा ) जीव (तसथावरसुहुमबादरेसु) त्रस, स्थावर, सूक्ष्म और बादर पर्याय वाले तथा ( पज्जत्तम पज्जत्तग एवं जाव परियट्टति दोहमद्ध) पर्याप्तक, अपर्याप्त से ले कर दीर्घमार्ग वाले चारगतिरूप संसारवन में परिभ्रमण करते हैं ।
( एसो ) यह (सो) पूर्वोक्त (परिग्गहस्स) परिग्रह के ( फलविवाओ ) फल का अनुभव - भोग, ( इहलोइओ) इस लोक सम्बन्धी ( पारलोइओ) परलोकसम्बन्धी ( अप्पसुहो) अल्पसुख वाला है; (बहुदुक्खो ) बहुत दुःख वाला है । (महब्भओ) महाभयजनक है; ( बहुरयप्पगाढो ) अत्यन्त मात्रा में कर्मरूपी रज से गाढ़ बना हुआ, (दारुणो) घोर (कक्कसो) कठोर और (असाओ ) असातारूप है । ( वाससहस्सेहि) हजारों वर्षों में जा कर (मुच्चइ) इससे छुटकारा होता है । (अवेइत्ता मोक्खो हु नत्थि ) फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता । ( एवं ) इस प्रकार ( नायकुलनंदणो ) ज्ञातकुल के नन्दन (महप्पा ) महात्मा (वीरवरनामधेज्जी) महावीर नामक ( जिणो उ ) जिनेश्वर भगवान् ने (आहंसु) कहा है । (य) और मैंने - शास्त्रकार ने ( परिग्गहस्स) परिग्रह ( फलविवाi) फल का विपाक ( कहेसी ) कहा है ।
एसो (यह ) (सो) पूर्वोक्त (पंचमो उ) पांचवाँ (परिग्गहो ) परिग्रह नामक आश्रवद्वार (नियमा) नियम से ( नाणामणिकणगरयणमहरिह) अनेक प्रकार की चन्द्रकान्त आदि मणियाँ, सोना, कर्केतन आदि रत्न तथा बहुमूल्य सुगन्धित द्रव्य