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छठा अध्ययन : अहिंसा-संवर और न ही अंडे आदि को फोड़ना चाहिए, न जीवों को हैरान-तंग करना चाहिए । ये जीव जरा भी भय और दुःख पहुँचाने लायक नहीं हैं । इस प्रकार ईर्यासमिति में मन-वचन-काया की प्रवृत्ति से जो अन्तरात्मा भावित होता है, वह शबलदोषों से रहित, असंक्लिष्ट परिणामी तथा अक्षतचारित्र की भावना से ओतप्रोत, मषावाद आदि से विरत संयमशील मोक्ष का उत्तम साधक और अहिंसक होता है। दूसरी भावना मनःसमिति है, जो इस प्रकार है-पापरूप दुष्ट मन से पापकारी, अधर्मयुक्त, दारुण, निर्दय, वध, बंधन और संताप से भरपूर एवं भय, मृत्यु और क्लेश से कलुषित-मलिन पाप में डूबे हुए धृष्ट मन से कदापि जरा-सा भी पापयुक्त चिन्तन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार चित्त के सत्प्रवृत्तिरूप व्यापार से भावित अन्तरात्मा ही अशबल, असंक्लिष्ट तथा अखंड चारित्र की भावना से युक्त संयमी स्वपरकल्याणसाधक सुसाधु ही अहिंसक होता है। तृतीय भावना वचनसमितिरूप है, जो इस प्रकार हैपापरूप वाणी के द्वारा सावद्य, अधर्मयुक्त, कठोर, घातक, वध, बंध और क्लेश से परिपूर्ण, बुढ़ापा, मृत्यु आदि के क्लेशों से क्लिष्ट वचन कदापि जरासां भी नहीं बोलना चाहिए। इस प्रकार वचनसमिति के सम्यक् प्रवृत्ति रूप योग से भावित अन्तरात्मा शबलदोषरहित, संक्लेश से दूर तथा अखंडचारित्र की भावना से ओतप्रोत,संयमी, सुसाधु शान्त अन्तःकरण वाला मुनि ही अहिंसक होता है।
चौथी भावना एषणासमिति है, जो इस प्रकार है-अशनादि चतुर्विध आहार की एषणा से शुद्ध अनेक घरों से भ्रमरवृत्ति की तरह थोड़ी-थोड़ी भिक्षा गवेषणापूर्वक ग्रहण करनी चाहिए । भिक्षाकर्ता अज्ञात हो यानी वह धनाढ्य घर का दीक्षित है, ऐसा दाता को मालूम न हो स्वयं भी लोगों के सामने ऐसा कुछ प्रकाशित न करे,अपने परिचितों या सम्बन्धियों के मोहजाल में न फंसा हो,भिक्षा न देने वालों पर द्वष युक्त भी न हो, भिक्षा प्राप्त न होने पर दीन न हो, दयनीय भी न हो, विषाद से रहित हो,मन वचन-काया की सम्यक् प्रवृत्ति में वह बिना थके लगा हुआ हो, प्राप्त संयमयोगों की स्थिरता के लिए प्रयत्न, अप्राप्त की प्राप्ति के लिए उद्यम, विनय के आचरण तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति के प्रयोग में जुटा हुआ साधु भिक्षाचरी के ऊँच-नीच मध्यम स्थिति के घरों में समभावपूर्वक घूम कर अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ले कर गुरुजन के पास आए। और भिक्षा के लिए जाने-आने में जो